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434 :: मूकमाटी-मीमांसा
इसमें साहित्य, कला, विज्ञान के सभी पहलुओं का संस्पर्शन, श्रमणकुल- गुरुदेव के व्यापक अनुभव, स्पष्ट चिन्तन-मनन, विस्तृत सोच-समझ के साथ-साथ जीवन की निकटता, आलोचना, रहस्योद्घाटन, समकालीन सन्दर्भों की विसंगतियाँ, मनोभावों के आरोह-अवरोह एवं रचनाशील भावना की अनुरंजित गाथा भी हैं । प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा के धनी, अभिधा - व्यंजना एवं लक्षणा के सिद्धशिल्पी इस दशाब्दी की उषा वेला में लेखनी का भी उद्देश्य वे यही कहते हैं :
“मैं यथाकार बनना चाहता हूँ / व्यथाकार नहीं । / और मैं तथाकार बनना चाहता हूँ / कथाकार नहीं ।
इस लेखनी की भी यही भावना है - / कृति रहे, संस्कृति रहे आगामी असीम काल तक / जागृत "जीवित" अजित !” (पृ. २४५) जनमानस को लेखनी से एक व्यावहारिक सन्देश, उपदेश से परे विचार प्रदान किया है :
" चोरी मत करो, चोरी मत करो / यह कहना केवल / धर्म का नाटक है उपरिल सभ्यता उपचार ! / चोर इतने पापी नहीं होते / जितने कि चोरों को पैदा करने वाले ।” (पृ. ४६८)
प्रति शब्द स्वयं में विशद, सार्थक, सटीक है। अर्थ विश्लेषण युक्त नीति वाक्यों की नवीन शैली से सुसज्जित महाकाव्य को विद्या विशेष, आन्दोलन विशेष, सन्दर्भ विशेष से दूर रखते हुए ही आचार्यरत्न श्री विद्यासागरजी ने जीवन की सन्निकटता से जोड़ा है । अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ४८८ पृष्ठीय अमूल्य, लौकिकअलौकिक निधि प्रदाता, आकर्षक, प्रभावी विषयवस्तु अनुरूप मुखपृष्ठ युक्त यह महाकाव्य सभी वर्गों में अपने ही दमखम से ख्याति प्राप्त कर पाया है। सत्य तो यह है महाकाव्यात्मक समस्त गुणों से युक्त, नवीन शब्द विश्लेषण का कोश 'मूकमाटी' एक खुली पुस्तक है जीवन शाला की।
[ 'जैन महिलादर्श' (मासिक), लखनऊ- उत्तरप्रदेश, दिसम्बर, १९९१ ]
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पृष्ठ ६३ गाँठ के सन्धि-स्थान पर
तुरन्त गाँठ खोल देते हैं।
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