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मूकमाटी-मीमांसा :: 429
श्रद्धांजलि दो ! / शालीनता की विशालता में / आकाश समा जाय / और जीवन उदारता का उदाहरण बने ! / अकारण ही
पर के दुःख का सदा हरण हो !" (पृ. ३८७ - ३८८)
आचार्यश्री मोक्षमार्ग को दिखा सकते हैं - मोक्ष को नहीं। विधायक प्रवचन दे सकते हैं, वचन नहीं। गुरु दिशा दे सकते हैं, दिशान्त नहीं । मोक्ष, वचन और दिशान्त तो आत्म-पुरुषार्थ से ही सम्भव हैं। 'घट' को दिशान्त तक की यात्रा में अपने ही पुरुषार्थों का प्रयोग करना पड़ता है।
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यह सम्पूर्ण संसार तन, मन और वचन के बन्धनों से घिरा रहता है । इन बन्धनों की 'इति' ही मोक्ष है। शुद्धावस्था में अमिट सुख है। उसकी प्राप्ति में आवागमन समाप्त हो जाता है। समाप्ति ही लक्ष्य है, मोक्ष है :
"बन्धन - रूप तन, / मन और वचन का / आमूल मिट जाना ही / मोक्ष है । इसी की शुद्ध - दशा में / अविनश्वर सुख होता है / जिसे / प्राप्त होने के बाद, यहाँ/ संसार में आना कैसे सम्भव है / तुम ही बताओ !
... विश्वास को अनुभूति मिलेगी / अवश्य मिलेगी / मगर
मार्ग में नहीं, मंजिल पर ! / और / महा- मौन में / डूबते हुए सन्त" और माहौल को/अनिमेष निहारती - सी / मूकमाटी ।" (पृ. ४८६ - ४८८ )
आचार्य विद्यासागरजी की 'मूकमाटी' की सात्त्विक प्रशंसा के लिए शब्द-कोश अधूरा है । सत्य ही, यह कृति 'दिव्य' है । यह सामान्य बौद्धिक विचारों का संग्रह नहीं है । यह कृति है तप की अन्तिम बिन्दु; यह कृति है एक अतुलनीय तपस्वी के तप की ऊष्मा का; यह कृति है मानव की दिग्दर्शिका; यह कृति है एक सांसारिक आश्चर्य; यह कृति है अवाक् की अन्तिम सीमा और और यह कृति है महात्मा ऋषि महर्षि - राजर्षि - नहीं नहीं नहीं अपितु एक देवर्षि का उन्मुक्त आशीर्वाद मानव को । मैंने समीक्षा नहीं की, देवर्षि से शिक्षा ली है । सम्पूर्ण विवेचना हेतु जन्मजन्मान्तरों की आवश्यकता है ।
पृष्ठ १५८ माँ की गोद में बालक
बालक का मुख छिपा लेती है।