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________________ 'मूकमाटी' : हिन्दी साहित्य की ऐतिहासिक उपलब्धि डॉ. शकुन्तला सिंह 'मूकमाटी' जैन मुनि आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित काव्यकृति है । भारतीय ज्ञानपीठ के श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने इस कृति का परिचय प्रस्तवन' शीर्षक से देते हुए लिखा है- “मूकमाटी महाकाव्य का सृजन आधुनिक भारतीय साहित्य की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है।' यद्यपि श्री जैन ने इसे महाकाव्य या खण्डकाव्य या मात्र काव्य की किस श्रेणी में रखा जाय, यह प्रश्न उठाया है, पर यह प्रश्न अप्रासंगिक ही है । वस्तुत: इसका कृतिकार न तो हिन्दी साहित्य का विशिष्ट कवि है और न ही उसका मूल उद्देश्य मात्र काव्य सृष्टि है। कृतिकार आचार्य विद्यासागर जैन धर्म ही नहीं, वर्तमान भारतीय दार्शनिकों और सन्तों में शिरोमणि हैं । अतएव उन्होंने इस रचना के माध्यम से समग्र मानव समाज के लिए शाश्वत, कल्याणकारी, दार्शनिक विवेचन प्रस्तुत किया है, अतएव श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के इस कथन से अधिकांश पाठक सहमत होंगे कि यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है। भारतीय काव्य की परम्परागत सीमा में बाँध कर इसका सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, यद्यपि 'मूकमाटी' निश्चित एक काव्य कृति है । काव्य दृष्टि से विचार करें तो यह परम्परागत महाकाव्य के स्वरूप की झलक अवश्य देती है । इसका बृहत् स्वरूप (लगभग ५०० पृष्ठ), काव्य के माध्यम से एक कथानक की अभिनव कल्पना, मिट्टी, कुम्भकार, धरती, सरिता, मछली, पुष्प, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, मानवों में एक राजा, मन्त्री, नगर सेठ आदि पात्रों का संकेत, कृति का सर्गों में विभाजन-इन सब काव्यगत अवयवों से यह कृति महाकाव्य की झलक अवश्य देती है किन्तु जैसा हमने आरम्भ में ही निवेदन किया है कि रचनाकार का मूल उद्देश्य काव्य-रचना नहीं वरन् दर्शन निरूपण है। अत: कृति के काव्य स्वरूप का विवाद निरर्थक है। सम्पूर्ण कृति के अध्ययनोपरान्त सिद्ध है कि आचार्य विद्यासागर जैसे तपस्वी के हृदय में दार्शनिकता के कठोर पर्वत खण्ड के भीतर कवि की एक अन्त:सलिला अवश्य प्रवाहित है । इसी शक्ति ने उनमें 'मिट्टी' जैसी लघु किन्तु लोकाचार में हेय वस्तु को उदात्त कल्पना और भावजनित रंग से अपूर्व बना देने का काव्यगत चमत्कार प्रस्तुत किया है। उनकी कथा-कल्पना जहाँ कोमल भावप्रवण है वहीं उसमें प्राकृतिक दृश्यों, वस्तुओं के वास्तविक मूल्यांकन की अद्भुत तार्किक शैली है। प्रकृति के विभिन्न मोहक रूपों के अभिनव दृश्यों को उनकी महत् शब्द-शक्ति ने जीवन्त बनाया है, जैसे: "प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है/सर पर पल्ला नहीं है और सिंदूरी धूल उड़ती-सी/रंगीन-राग की आभा-/भाई है, भाई! लज्जा के घूघट में/डूबती-सी कुमुदिनी/प्रभाकर के कर-छुवन से बचना चाहती है वह;/अपनी पराग को-/सराग-मुद्रा को पाँखुरियों की ओट देती है।” (पृ. १-२) वस्तुत: पूरी कृति में आचार्यजी का विशद पाण्डित्य व प्रभाव परिलक्षित है । और उनके दार्शनिक चिन्तन के बौद्धिक, तार्किक एवं नव्य अर्थ प्रदाय के अनेकानेक प्रसंग प्रस्तुत हैं । दर्शन जैसे विकट और जटिल विषय को अपनी तार्किकता, नूतन उपमा, दृष्टान्त, अत्यन्त रोचक गूढ़ अर्थतत्त्वों के माध्यम से सामान्य जन के लिए भी पठनीय बना दिया है। मेरी दृष्टि से आचार्यजी की चिन्तनशीलता किसी एकान्त वन प्रदेश अथवा कन्दरा में रहने वाले ऋषि-पुरुष की नहीं है वरन् उस महान् विचारक की है जिसकी चिन्तनशीलता की लम्बी शृंखला में आधुनिक युग एवं जीवन के सभी ज्वलन्त प्रश्न और समस्याओं का गहन अध्ययन एवं निदान भी है। कृति के आरम्भ में ही 'मिट्टी' की आकुलता पर धरती का प्रस्तुत विवेचन आधुनिक युग के यक्ष प्रश्नों का
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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