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________________ 428 :: मूकमाटी-मीमांसा की सामग्री में समाविष्ट किया जाएगा । बबूल का कार्य पुण्यमय है। किसी को स्वरूप देने के लिए अपने को 'इति' में लाना ही उपकार है। ___"स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने” (पृ. २७७)- इसमें सन्तों का अनुमोदन भी है। 'बबूल' का त्याग ही घट का स्वरूप है । कालान्तर में, घटकार की सफलता है। कुम्भ का सौन्दर्य ही कुम्भकार की सफलता है, कुशलता है : "'कुम्भ की कुशलता सो अपनी कुशलता'/यूँ कहता हुआ कुम्भकार सोल्लास स्वागत करता है अवा का,/और रेतिल राख की राशि को,/जो अवा की छाती पर थी हाथों में फावड़ा ले, हटाता है ।/ज्यों-ज्यों राख हटती जाती, त्यों-त्यों कुम्भकार का कुतूहल/बढ़ता जाता है, कि कब दिखे वह कुशल कुम्भ'"!" (पृ. २९६) अन्तत:, वह कुम्भ को अग्नि ताप से बाहर निकालता है। 'कुम्भ' अपने अन्तिम तप को प्राप्त कर 'साधुत्व' को पा लेता है । वह सबकी तृषा-तृप्ति का पुण्य प्राप्त कर लेता है । यह तृषा तृप्तृत्व जैन मुनियों का लक्ष्य है - मोक्ष है। यही आदेश है, यही उपदेश है। अन्तिम खण्ड में सेठ का आहारदानोपरान्त रिक्त हाथ लौटना इसी सत्य का प्रतीक है कि वह अपने गन्तव्य पथ को जान गया है। अब उसे मायावी राजमार्गों पर लौटने की आवश्यकता नहीं है । उसे निर्दिष्ट मार्गों का भान हो गया है। वह अनमना है, अपने भूत के मार्गों से व्यथित है । किन्तु अभी तो मात्र मार्ग ही मिला है-मुक्ति नहीं । मुक्ति में लौटना कैसा: "सही दिशा का प्रसाद ही/यही दशा का प्रासाद है।" (पृ. ३५२) ___महाकवि कालिदास विरचित 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का चतुर्थ अंक जिस प्रकार मानवीय अनुभूतियों से संवलित हो यथार्थ का पोषक है, उसी प्रकार 'मूकमाटी' का चतुर्थ खण्ड मानवीय उद्वेगों का समष्टि खण्ड है । आचार्यश्री ने अत्यन्त सूक्ष्म दिव्यदृष्टि से इस अंक को 'चतुर्थ धाम' में स्थापित किया है। मैं व्यक्तिगत रूप से इस खण्ड को 'मोक्ष खण्ड' की संज्ञा देते हुए विचलित नहीं होता। आचार्यश्री ने 'ईर्ष्या' पक्ष का अनन्वय प्रसंग प्रस्तुत किया है। 'माटी' लाज भरे सौन्दर्य में अवगुण्ठित हो कर अपने को संस्कृति के अनुकूल प्रस्तुत कर सकी है । वह मूक है । 'माटी' का सौन्दर्य ‘घट' तप की समस्त श्रेणियों का अतिक्रमण कर ‘स्वर्ण घट' को झुठला देता है । ‘स्वर्ण घट' में ईर्ष्या है । वह आतंक की स्थिति में है । वह गजदल और नाग-नागिनियों की अपेक्षा में है। नाव का डूबना इहलौकिक' है जबकि सेठ का क्षमा भाव' अन्तत: यथार्थ है । हृदय परिवर्तन मायावाद के अन्त का कारण है। ‘स्वर्ण कलश' अपने मायावी सौन्दर्य से ग्लपित है। चतुर्थ खण्ड सामाजिक पक्ष के दायित्व बोध की चेतना है । आचार्यश्री ने दायित्वबोध को मनुष्य तक ही सीमित नहीं किया है, अपितु एक तुच्छ ‘मच्छर' से इस बोध को सरलीकृत भी किया है : "सूखा प्रलोभन मत दिया करो/स्वाश्रित जीवन जिया करो, कपटता की पटुता को/जलांजलि दो !/गुरुता की जनिका लघुता को
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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