________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 427
द्वितीय उन्मेष में सन्त कवि ने “उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य युक्तं सत्" जैसे कठिन सूत्रों को भी सरलीकृत कर दिया
"आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन- उत्पाद है
जाना यानी मरण - व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर - ध्रौव्य है / और है यानी चिर- सत् / यही सत्य है, यही तथ्य ..!” (पृ. १८५)
कवि ने आना-जाना की विवेचना करके पुनर्जन्म को स्वीकारा ही नहीं, अपितु इस प्रसंग को स्थिर माना है । स्पष्ट है कि मनीषी इस समय गीता के कर्म - सिद्धान्त के समीप आ जाते हैं।
कविवर 'शब्द' की परिभाषा में उच्चारण को स्वीकृति देते हैं । वे 'उच्चारण' को ही 'शब्द' कहते हैं । वैदिक दर्शन में शब्द ही ब्रह्म है । इस शब्द - ब्रह्म का रहस्य समझना 'बोध' है । इस 'बोध' की अनुभूति ही 'शोध' है जो अनादि ऋत है, सत्य है तथा मूल तथ्य है ।
'गीता' के दर्शन में कर्म को मान्यता दी गई है। कर्म में अधिकार की 'सत्ता' भी स्पष्ट है । किन्तु कर्म से फल चिन्तन का निषेध किया गया है :
" मा फलेषु कदाचन ।” (२/४७)
आचार्यवर 'फल' को अन्तिम बिन्दु स्वीकार करते हैं । इस हेतु वे गीता दर्शन से कुछ दूर सरक जाते हैं। वे पुष्प से नहीं, अपितु फल से तृप्ति को अनुभूत करते हैं :
"फूल से नहीं, फल से / तृप्ति का अनुभव होता है ।" (पृ. १०७)
उपर्युक्त दोनों पक्षों में विरोधाभास नहीं है। गीता के अनुसार कर्म के अधिकार की परिभाषा से 'फल' प्राप्त तो होगा ही । अत: चिन्ता अनावश्यक है । फल प्राप्ति के मूल में चिन्ता का रोपण फल बाधक भी हो सकता है, अत: 'गीता' में 'फल' को आत्मानुभूति माना गया है। इसी पक्ष को आचार्यश्री ने फल से तृप्ति का अनुभव स्वीकार किया है । 'शब्द' ब्रह्म है। 'बोध' पुष्प है । पुष्परूपी बोध में अनुकूलता है सगुण पक्ष में, जबकि निर्गुण पक्ष में यही बोध शोध हैपरिणति है - मानव जीवन की उपलब्धि है ।
मानव-जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को पाप-पुण्य इन दो शब्दों से पूरित किया गया है। प्राच्य विधायकों ने इन दोनों शब्दों को परिभाषित किया है । प्रायः समस्त विधायक इस विचार पर एक मत हैं कि मन, वचन तथा काय की अमलता से पुण्य मिलता है। इसके विपरीत दोषों से पाप की वृष्टि होती है। मनुष्य की प्रकृति में पाप का आकर्षण सरल है, स्वाभाविक है । ऐश्वर्य 'क्षोभ' को प्रसूत करता है । मान्यवर ने स्पष्ट कहा है कि धरती की यश: स्थिति से सागर क्षुभित हो जाता है और अन्त में इस क्षोभलतिका का अन्त प्रलय में बदल जाता है । भारतीय दर्शन में 'क्रोधात् भवति सम्मोहः...विनश्यति' का प्रायोगिक उपदेश उपर्युक्त कथानक को ही पुष्ट करता है। 'मूकमाटी' की वृद्धावस्था चतुर्थ खण्ड में है । कुम्भकार घट को स्वरूप दे देता है । यह स्वरूप सांसारिक प्रवेश कहा जा सकता है। मानव के भौतिक पक्ष को इहलौकिक यातनाओं में तपना पड़ता है । 'घट' तपेगा । बबूल व्यथित है । लकड़ियाँ जलती हैं, बुझती हैं । बबूल की अरणियाँ व्यथित हैं । बबूल की नियति जलने-बुझने में ही है। 'घट' सतर्क है। वह तप के अन्तिम रूप में है । उसे निखार 'मोक्ष' की प्रतीक्षा है ।
'
"मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है" (पृ. २७७ ) - यह 'जिलाना' तभी सम्भव है जब बबूल को तप