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________________ 426 :: मूकमाटी-मीमांसा पाँचों इन्द्रियाँ बाह्य जगत् में विचरण करने लगती हैं - असीम सीमा उनके विचरण की । अन्ततः वे थक जाती हैं। थकती हैं तो वापस लौटती हैं - यही अन्तर्मुखी गति है । इस गति से ही मोक्ष प्रारम्भ हो जाता है। भारतीय दर्शन में प्रत्येक जीव 'आत्मा' पक्ष में एक है। अत: वह अन्तर्मुखी अवस्था में अपने भीतरी स्वरूप में स्वत: को प्रतिबिम्बित करता है । वह यथार्थभूत 'स्व' को मूल्यांकित कर स्वतः को सार्थक करना चाहता है । जिस प्रकार राम में रामत्व को तथा कृष्ण में कृष्णत्व को देखता है, उसी प्रकार वह 'अहम्' में ब्रह्म को अन्वेषित करता है । गद+हा के विग्रह में 'गद' यानी रोग और 'हा' यानी हन्ता अर्थात् 'रोग हन्ता' की 'स्व भूमिका' को प्राप्त कर 'गदहा ' असीम आनन्द रूप मोक्ष को पा ही लेता है। राही की भूमिका में 'हीरा' तथा 'खरा' की प्राप्ति में तन, मन की दूषिकाओं को राख करना ही होगा, तभी जीव 'राम' के 'त्व' अर्थात् 'रामत्व' को जान सकेगा । देव से देवत्व के लिए उसे लम्बी यात्रा करनी पड़ती है, तभी कहीं चेतन आत्मा खरा उतरता है : " तभी कहीं चेतन - आत्मा / खरा उतरेगा । ...रा ं"ख"""ख"रा ं।" (पृ. ५७ ) 'मूकमाटी' में 'मौन' से 'मुक्ति' तक का विवेचन चार खण्डों में विभाजित किया गया है। प्रथम उन्मेष में सन्त कवि ने माटी के प्रथम रूप की विवेचना की है। यही माटी की वर्ण संकर अवस्था है। माटी के अदृश्य स्वरूप के साथ कंकड़-पत्थर रूप भी हैं । स्वरूप हेतु कुरूप को त्यागना ही होगा। 'ईशावास्यम्' ( १ ) में कहा गया है : ‘तेन' त्यक्तेन भुंजीथाः ।" 66 यह शब्दावली स्पष्ट आदेश है कि रूप (सांसारिक अनुभूतियों) के त्याग से ही स्वरूप ( स्व + रूप = अन्त: पक्ष) अर्थात् परमात्मा की उपलब्धि होती है । आत्मा का ऐश्वर्य में आकर्षण ही वर्ण संकर है जबकि कंकड़-पत्थर का साहचर्य विकार है । "नीर का क्षीर बनना ही / वर्ण-लाभ है, / वरदान है । / और क्षीर का फट जाना ही / वर्ण-संकर है/ अभिशाप है । " (पृ. ४९ ) यही जीव का लक्ष्य है । किन्तु, माँ की कोख से श्मशान की, दूरी पार करने में एक अरसा लग जाता है। महाकाव्य के द्वितीय उन्मेष में आचार्य अपेक्षाकृत प्रौढ़ हैं । काव्यशास्त्रियों ने इस उन्मेष को 'साहित्य-बोध' नाम से स्वीकार किया है । यह 'काव्य-बोध' विविध काव्य विशेषताओं की मर्यादा में पुष्पित है । 1 कविवर ने अत्यन्त कुशलता से मान्य नव रसों को अनूठे ढंग से दार्शनिक परिवेश दिया है। भारतीय मान्यता है नवरसों की अनुभूति के लिए 'सामाजिक' होना अनिवार्य है । सामाजिक ही रसों की मर्यादा के अनुसार भावनाओं को रसानुकूल प्रेरित करता है । यही कारण है कि एक ही 'भाव' रस के अनुसार कभी करुण तो कभी शृंगार हो जाता है । संक्षेप में, सुख-दुःखात्मक प्रसंगों में एक ही सामाजिक पृथक्-पृथक् भावानुकूल अभिनीत होता है । इन सुखदुःखात्मक प्रसंगों की विषादास्पद परिस्थितियों से शून्य होकर अन्ततः 'शम' की प्राप्ति होती है। अन्य रसों की अपेक्षा शृंगार रस की अकथित व्याख्या 'मूकमाटी' में है । शृंगार रस मोक्षमूलक है। इस तथ्य को जीवन दान देना, सन्त परिवेश में कठोर तपस्या करना है। ऐसी अवस्था में आचार्य संस्कृत के कालिदास के समीप आ जाते हैं। कालिदास ने भी 'वस परिधूसरे वसाना' में शृंगार रस को मोक्ष प्राप्ति का साधन निरूपित कर दिया है। सांख्य दर्शन में भी प्रकृति - पुरुष सिद्धान्त शृंगार रस के मोक्ष पक्ष में ही मतदान करता है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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