________________
'मूकमाटी' के रहस्यों को लिपिबद्ध करना लघुकाय नौका से समुद्र पार करना
डॉ. नरेन्द्र शर्मा
दर्शन की गहराई की अन्तिम सीमा 'मूकमाटी' महाकाव्य ही नहीं है, अपितु मानव के लक्ष्य 'मोक्ष' प्राप्ति का सोपान भी है । आचार्य श्री विद्यासागर की अमर कृति 'मूकमाटी' सामान्य चेतना का विषय नहीं है । इस अनूठी धरोहर के विश्लेषण के लिए तप की अग्नियों से गुज़रना होगा । सामान्य व्यक्ति तो केवल इसके शब्दों को ही गुनगुनाता रह जाएगा । मर्म - अर्थ की गहराई तक पहुँचने के लिए उसे दर्शन के सैद्धान्तिक पक्षों को ज्ञापित करना होगा ।
मान्य विधायकों में यह अवरोध है कि 'मूकमाटी' महाकाव्य है अथवा कालिदास के 'मेघदूत' की तरह मात्र खण्ड काव्य है । शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार खण्ड काव्य की अपनी एक सीमा है । किन्तु, महाकाव्य विविध प्रसंगों, उप प्रसंगों के साथ खण्डगत विभाजन में अनुबन्धित होता है। 'मूकमाटी' के चार खण्ड इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं कि ४८८ पृष्ठों का यह दिव्य ग्रन्थ महाकाव्य ही है । अन्तः साक्ष्य भी 'मूकमाटी' को महाकाव्य की सीमा में ले लेते हैं।
'मूकमाटी' के कुछ प्रारम्भिक पृष्ठ अपने कुछ सहयोगी पृष्ठों के साथ प्रकृति को समर्पित हैं। कालान्तर में काल की उपेक्षा किए बिना प्राकृतिक दृश्य मनुष्य के दर्शन तल को छूने लगते हैं :
" इस पर्याय की / इति कब होगी ?
... पद दो, पंथ दो/ पाथेय भी दो माँ ! " (पृ. ५ )
भारतीय दर्शन में जीव का मूल लक्ष्य 'मोक्ष' है । वेदों में भी इस मोक्षमार्ग को मोहगर्त से निकाला गया है। सांसारिक मोहगर्त इतना असीम है कि वेदों को भी अन्तत: 'नेति नेति' कह कर मौन रखना पड़ा। पर्याय शब्द - विधान सांसारिक असंख्य अनुभूतियों का प्रतीक है । सांसारिक अनुभूतियों की 'इति' ही वेदों के 'नेति नेति' कथन में संघर्षरत
है।
आचार्यश्री का ही धैर्य है कि वे मात्र एक ही पंक्ति में वेदों की समस्त गहराइयों को स्पर्श कर लेते हैं। आत्मा सांसारिक ऐश्वर्यों की घुटन से पीड़ित है । वह काम, क्रोध, लोभ और मोह आदि में जकड़ गई है। वह व्यथित है, उपाय की खोज में है और खोज में वह विलम्ब नहीं सहन कर सकती
:
"कुछ उपाय करो माँ ! / खुद अपाय हरो माँ ! और सुनो, / विलम्ब मत करो ।” (पृ. ५)
'माटी' मूक है, उसमें करुणा है । वह कुम्भकार की आश्रिता है । उसकी कला के लिए लालायित है । वह कुम्भकार की समर्पिता बनकर 'घट कलश' में रूपान्तरित हो जाना चाहती है :
“विलम्ब मत करो ।” (पृ. ५)
सम्प्रति, अनाम 'माटी' सांसारिक बन्धनों का अतिक्रमण करना चाहती है । उसमें न मोह है, न राग है और न जन्म-मरण की जरा-जीर्णता है । वह भय सीमाओं से दूर, निद्रा - तन्द्रा के दोषों से मुक्त होना चाहती है । वह ऐसे प्रकाश घट में लीन होना चाहती है जिसके पास न संग है, न संघ । वह समस्त दोषों से शून्य होना चाहती है । भारतीय दर्शन में भी आत्म तत्त्व, उपर्युक्त कथित प्रसंगों से मुक्त होकर परमात्मा में लीन होना चाहता है । सांसारिकता के प्रवेश में ही वह रुदन से अपनी त्रुटियों को स्पष्ट कर देता है ।