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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 423 मिली है। शब्द को अर्थ और अर्थ को परमार्थ मिला है। शाब्दिक व्युत्पत्ति द्वारा शब्द की आत्मा को उजागर कर दिया है। शब्दाक्षरों को विलोम करके नूतन अर्थ व्यंजित कर भाषाविदों को विस्मय में डाल दिया है। राही, राख, लाभ, तामस, चरण इत्यादि ऐसे ही शब्द हैं । शब्दों से अक्षर अलग कर उत्पन्न हुए ध्वनित अर्थ भी कम रोचक नहीं हैं । रसना-रस ना, कृपाण-कृपा न, आदमी-आ दमी, अंगना-अंग ना , नागिन-ना गिन इत्यादि ऐसे शब्द हैं जो हमें चिन्तन के दोराहे पर छोड़ देते हैं। आचार्यश्री बहुभाषाविद् हैं, अत: आपने यथास्थान विविध भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है, जिनका भावाभिव्यक्ति में पूर्ण योग है। भाषा विषयानुकूल एवं भावानुकूल बदलती रही है। अलंकार अलं चाहते हुए भी सहज, स्वाभाविक रूप में आ ही गए हैं। धर्म आत्मा की वस्तु है । धर्मात्मा का जीवन मनसा-वाचा-कर्मणा एकरूपता धारण कर लेता है । समता में वह रमता है, राग भी उसे विराग का कारण होता है। धरती की तरह क्षमाशील, पवन की तरह प्रगतिवान् और आकाश की तरह निर्भय, उन्नत एवं स्वच्छ वह जीवन शाश्वत अनन्त अनुभतियों का अक्षयपंज बन जाता है। वे अनभतियाँ जब शब्द का रूप धारण कर लेती हैं तो अमर काव्य का सृजन होता है । आचार्यश्री विद्यासागरजी की 'मूकमाटी' ऐसा ही महाकाव्य है । वह लेखनी से नहीं, आत्मा से प्रसूत है । वह एक निर्ग्रन्थ सन्त का काव्य है जिसमें अनुभूतियों का आलोक लौकिक जीवन और जगत् से उठकर आत्मा और परमात्मा की परम पावन सत्ता में प्रवेश कर जाता है, फिर वहाँ कुछ भी लौकिक नहीं रहता, सब कुछ अलौकिक और पारलौकिक हो जाता है । यह काव्य के साथ ही साथ महाशास्त्र भी है। इसका क्षेत्र इतना व्यापक है कि प्रकारान्तर से समाज, राजनीति, आयुर्वेद, शिक्षा, गणित, विज्ञान, संगीत, मन्त्र, बीजाक्षर आदि विषय भी इसमें यथास्थान आ गए हैं किन्तु वैशिष्ट्य यह है कि जिस प्रकार सभी नदी-प्रवाह अन्ततः सागर में समा जाते हैं, उसी प्रकार सभी विषय-विचार दर्शन/अध्यात्म में मिल जाते हैं। यह केवल पढ़ने के लिए नहीं है, पठन के साथ गुणन कीजिए । गुणन से आनन्द कई गुना हो जाता है । इसे इक्षु की गाँठों के समान चबाने पर रसानुभूति होती है। यह एक दार्शनिक सन्त का काव्य है । अत: सपाट-समतल मार्ग की तरह इसमें सरपट दौड़ नहीं लगाई जा सकती, इसमें सँभलकर, समझकर चलने की आवश्यकता है, अन्यथा को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे'। यथास्थान रुकिए, रसाभिषिक्त होकर तृप्ति एवं स्फूर्ति पाकर आगे बढ़िए । यदा-कदा क्या, बहुधा ऐसे अवसर आएँगे कि जहाँ तक हमारी मति की गति पहुँची नहीं होगी, वहाँ तक इसके शब्दार्थ हमें वाच्यार्थ से बढ़कर लक्ष्यार्थ-व्यंग्यार्थ और परमार्थ तक पहुँचा देंगे। अनेक शब्दों के व्युत्पत्ति अर्थ पाठक को रवि-कवि-अनुभवी की सीमाओं से भी परे ले जाते हैं। शब्दों को विलोम करके ध्वनित अर्थ राही को हीरा और राख को खरा बनाकर मानी के मान को नमा देते हैं। ___ इसका अर्थ यह नहीं कि इसमें सरल, प्रवाहमय स्थलों की न्यूनता है । संस्कृत के सुदीर्घ सूत्रों के गूढ़ अर्थ को कम शब्दों में अत्यन्त सरलता के साथ अभिव्यक्ति का अनूठापन दर्शनीय है : 0 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' (तत्त्वार्थसूत्र-५/३०) "आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-धौव्य है और/है यानी चिर-सत्/यही सत्य है, यही तथ्य !" (पृ. १८५) 0 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' (तत्त्वार्थसूत्र-१०/२) “बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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