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मूकमाटी-मीमांसा
इस खण्ड का आकार बहुत विस्तृत है । दो सौ से भी अधिक पृष्ठ यानी सम्पूर्ण कृति के अर्द्ध भाग को यह खण्ड समेटे हुए है । कथ्य को प्रस्तुत करने की शैली अनोखी है । बात-बात में नए-नए कथा-प्रसंगों की उद्भावना हो जाती है और सरिता की तरह कथाप्रवाह अनेक मोड़ लेता हुआ आगे बढ़ता जाता है । अन्त में साधु देशना के साथ यह खण्ड समाप्त होता है :
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"यहाँ सब का सदा / जीवन बने मंगलमय / छा जावे सुख - छाँव, सबके सब टलें - / अमंगल - भाव, / सब की जीवन लता हरित - भरित विहँसित हो / गुण के फूल विलसित हों नाशा की आशा मिटे / आमूल महक उठे / ... बस !” (पृ. ४७८)
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"बन्धन - रूप तन, / मन और वचन का / आमूल मिट जाना ही / मोक्ष है । इसी की शुद्ध-दशा में / अविनश्वर सुख होता है / जिसे / प्राप्त होने के बाद, यहाँ/ संसार में आना कैसे सम्भव है / तुम ही बताओ !” (पृ. ४८६ - ४८७)
आमूल
साधु देशना के रूप में कवि ने महाकाव्य का उद्देश्य प्रकट कर दिया है- ' बन्धन - रूप तन, मन और वचन का मिट जाना ही, मोक्ष है । इसी की शुद्ध दशा में अविनश्वर सुख होता है'- इस दशा को प्राप्त करना ही प्रत्येक आत्मा का चरम लक्ष्य है ।
“विश्वास को अनुभूति मिलेगी / अवश्य मिलेगी / मगर
मार्ग में नहीं, मंजिल पर ! / और / महा- मौन में / डूबते हुए सन्त और माहौल को / अनिमेष निहारती - सी / मूक माटी ।" (पृ. ४८८ )
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यदि हम इसके महाकाव्यत्व पर विचार करें तो असन्दिग्धरूपेण कहा जा सकता है कि यह एक महाकाव्य है । आकार की दृष्टि से यह चार खण्डों में विभक्त है एवं लगभग ५०० पृष्ठ घेरता है। 'मूकमाटी' यानी सुषुप्त चैतन्य शक्ति इसकी नायिका है। कुम्भकार, मूकमाटी, नगर सेठ, अतिथि, नीराग साधु इसके प्रमुख पात्र हैं। मूकमाटी से लेकर घटनिर्माण और बीच-बीच में अनेक उतार-चढ़ाव - घुमाव लेती हुई कथा, घट द्वारा नगर सेठ के परिवार का सरितातरण, आतंकवाद से रक्षा और अन्त में साधु देशना के साथ समाप्त होती है। इसमें अनेक अन्त: कथाएँ भी हैं । नव रसों का वर्णन बड़े ही अनूठे एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में किया गया है जो पठनीय, चिन्तनीय एवं रमणीय है । प्रकृति-चित्रण चमत्कारिक एवं मौलिक है । कल्पना के लोक में विचरते हुए भी यथार्थ का धरातल छूटा नहीं है । सम्पूर्ण काव्य अतुकान्त छन्द में लिखा गया है, फिर भी प्रकार से न सही, आकार से तो उनमें भेद दृष्टिगत होता ही है, यथा :
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"मन्द-मन्द/ सुगन्ध पवन / बह रहा है;
बहना ही जीवन है / बहता - बहता / कह रहा है ।" (पृ. २-३ )
"अन्तिम भाग, बाल का भार भी / जिस तुला में तुलता है वह कोयले की तुला नहीं साधारण-सी,
सोने की तुला कहलाती है असाधारण !” (पृ. १४२ )
भाषा पर कवि का असाधारण अधिकार है । अध्यात्म एवं दर्शन जैसे गूढ़ विषयों को बड़ी सहजता के साथ अभिव्यक्ति