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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 421 कुम्भ का जलीय अंश सूखने पर ही कुम्भ पर अंकन स्थायी हो सकता है । उसी प्रकार आत्मा में डाले गए संस्कार जड़ीय (ड-ल-योरभेदः) अंश (अज्ञान) के समाप्त होने पर ही स्थायी हो सकते हैं और इसके लिए आवश्यकता है तप की । तप के द्वारा ही माटी मंगल घट एवं आत्मा कल्याणमयी बन सकेगी : "बिना तप के जलत्व का, अज्ञान का/विलय हो नहीं सकता/और बिना तप के जलत्व का, वर्षा का/उदय हो नहीं सकता।” (पृ. १७६) इस खण्ड में सन्त कवि ने शिल्पी, काँटा और मिट्टी के माध्यम से साहित्य के विविध विषयों का नवीन रूपेण चित्रण किया है । नव रस, ऋतु वर्णन चमत्कारी शैली में चित्रित हैं। कहना न होगा कि तत्त्व-दर्शन एवं अध्यात्म की उद्भावना पग-पग पर की गई है। तृतीय खण्ड में चित्रण है कि अज्ञान के अभाव में मन-वचन-काय की निर्मलता से, जलत्व का - वर्षा का उदय अर्थात् लोककल्याण की भावना तथा शुभ कार्यों से पुण्य उपार्जित होता है जबकि क्रोध-मान-माया-लोभादि असत् भावनाओं से पापार्जन होता है । अज्ञान के अभाव में 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' की क्रिया चलती है। __ जलधि धरती को लूट कर रत्नाकर बन जाता है तथा चन्द्रमा घूस लेकर, चन्द सम्पदा का स्वामी होकर भी, सुधाकर बन गया है। जल, सूर्य, पृथ्वी आदि सत्कार्य कर पुण्य का पालन करते हैं। धनलिप्सा का समुद्र के माध्यम से किया गया चित्रण आज की समाज की घृणित भावना को उजागर कर देता है : “यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं, अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है ।" (पृ. १९२) दूसरी ओर धरा के माध्यम से धर्म की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया है : "जल को जड़त्व से मुक्त कर/मुक्ता-फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है ।/यही दया-धर्म है यही जिया कर्म है।” (पृ. १९३) पुण्य कर्म के द्वारा प्राप्त विभिन्न श्रेयस्कर उपलब्धियों का चित्रण भी इस खण्ड में किया गया है। चतुर्थ खण्ड ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक से ही स्पष्ट है कि घड़े को अवे में तपाया जाता है, उसके दोष जलकर भस्म हो जाते हैं। दोषों की राख बिखर जाती है और घट चाँदी-सा खरा होकर मंगल घट हो जाता है। तभी तो नगर सेठ का सेवक जब मंगल घट की कंकर से सात बार बजाकर परीक्षा करता है तब घट से ये स्वर निकलते हैं: “सा रे ग "म यानी/सभी प्रकार के दुःख/प. ध यानी पद-स्वभाव और/नि यानी नहीं,/दु:ख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का/विभाव-परिणमन मात्र है वह ।” (पृ. ३०५) जो आत्मा तप और ध्यान के द्वारा अपने दोषों को जलाने में तत्पर है वह माटी से मंगल घट की तरह सबके लिए मंगल घर बन जाती है । कुम्भ के मुख से नि:सृत पंक्तियाँ उक्त आत्मा के ही स्वर हैं :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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