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________________ 420 :: मूकमाटी-मीमांसा जिनके चरण, आचरण, प्रवचन भव-भव में भटकते भव्यों को सत्पथ-दर्शक बनकर भगवान् बनने का उद्घोष कर रहे हों, ऐसे सन्त के मन में ही माटी से मंगल घट तक की मंगल यात्रा की परिकल्पना उद्भूत होना सम्भव है। आध्यात्मिक पक्ष में यह यात्रा आत्मा के विकास की कथा है । माटी से मंगल घट और मंगल घट द्वारा सेठ के परिवार का सरिता-तरण-आत्मा की तरण-तारण स्थिति की व्यंजना है। महाकाव्य चार खण्डों में विभाजित है- खण्ड १- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' ; खण्ड २-'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' ; खण्ड ३-'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' एवं खण्ड ४-‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।' प्रथम खण्ड में यह दर्शाया गया है कि माटी उस प्राथमिक अवस्था में है जिसमें कंकर-कण मिश्रित हैं। यह उसकी वर्ण-संकर दशा है । माटी में मंगल घट बनने की पात्रता तब आ सकती है जब उसमें से बेमेल तत्त्व कंकर-कणों को पृथक् कर दिया जाय । प्रकृति के विपरीत बेमेल तत्त्वों का पृथक् होकर माटी का मूलरूप/स्वाभाविक दशा को प्राप्त होना ही माटी का वर्णलाभ है । आध्यात्मिक पक्ष में आत्मा अनादिकाल से कर्म मेल से वर्णसंकर स्थिति में है। निमित्त मिलने पर वह वर्णलाभ (पात्रता) की स्थिति तक पहुंचती है। यह वह स्थिति है जब आत्मा में संस्कार ग्रहण करने की योग्यता आती है। द्वितीय खण्ड में यह व्यंजित हुआ है कि वर्णलाभ प्राप्त आत्मा शब्दबोध (शब्द का सम्पूर्ण अर्थ समझना)कर सकता है और शब्दशोध (बोध को अनुभूति में, आचरण में उतारना) भी। 'बोध' और 'शोध' शब्दज्ञान और चारित्र को ध्वनित करते हैं। वर्णलाभ प्राप्त माटी (आत्मा) शब्दबोध एवं शब्दशोध की ओर इस प्रकार बढ़ती है : _ "लो, अब शिल्पी/कुंकुम-सम मृदु माटी में/मात्रानुकूल मिलाता है छना निर्मल-जल ।/नूतन प्राण फूंक रहा है/माटी के जीवन में करुणामय कण-कण में,/...माटी के प्राणों में जा,/पानी ने वहाँ नव-प्राण पाया है,/ज्ञानी के पदों में जा/अज्ञानी ने जहाँ नव-ज्ञान पाया है।/अस्थिर को स्थिरता मिली/अचिर को चिरता मिली नव-नूतन परिवर्तन"!" (पृ. ८९) "मान-घमण्ड से अछूती माटी/पिण्ड से पिण्ड छुड़ाती हुई कुम्भ के रूप में ढलती है/कुम्भाकार धरती है ।" (पृ. १६४) "दो-तीन दिन का/अवकाश मिला/सो कुम्भ का गीलापन मिट-सा गया ""/सो "कुम्भ का ढीलापन/सिमट-सा गया । आज शिल्पी को बड़ी प्रसन्नता है/कुम्भ को उठा लिया है हाथ में । और फिर,/एक हाथ में सोट ले/दूजे से ओट कर कुम्भ की खोट पर चोट की है।” (पृ. १६५) फिर कुम्भकार कुम्भ पर संख्याओं, यथा- ९, ९९, ६३ एवं सिंह, श्वान, कछुआ, खरगोश आदि पशुओं का अंकन कर उसे अलंकृत करता है। उल्लेखनीय है कि मनुष्य की कच्ची (बाल्य) अवस्था में डाले गए संस्कार जीवन भर विकसित होकर उसे प्रभावित करते रहते हैं।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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