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________________ 'मूकमाटी' लालचन्द्र जैन 'राकेश' आचार्य श्री विद्यासागरजी ज्ञान-ध्यान- तपोरक्त प्रखर तपस्वी हैं । आचार्यश्री जन्मजात अलौकिक, बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। वे बहुभाषाविद् तो हैं ही, काव्य - व्याकरण - दर्शन - अध्यात्म आदि अनेक विषयों में उनकी गहरी पहुँच है । आचार्यश्री की अनुभवसिद्ध लेखिनी से अनेक काव्यकृतियाँ प्रसूत हुई हैं। प्रत्येक अगली कृति उनकी काव्यकला के बढ़ते सोपानों की प्रतीक है । उनके कथ्य लौकिक से आरम्भ होकर अलौकिक में, साधारण से असाधारण, अर्थ से परमार्थ में, आत्म से परमात्म में एवं बाह्यजगत् से अन्तर्जगत् में विलीनता प्राप्त करा कर पाठक को 'अद्भुत' लोक में पहुँचा देते हैं । : विश्व - साहित्य की अप्रतिम उपलब्धि इसी श्रृंखला में प्रसूत उनका 'मूकमाटी' महाकाव्य आधुनिक भारतीय साहित्य के साथ ही विश्व साहित्य के क्षेत्र में भी अप्रतिम, उल्लेखनीय उपलब्धि है । यह कालजयी रचना है जो कथ्य, तथ्य और प्रतिपाद्य के शाश्वत महत्त्व कारण कभी पुरानी नहीं पड़ेगी । प्रथमतः, कृति के नाम का भी उसकी महत्ता में योगदान होता है । नाम, कृति का मुख होता है जिसमें उसकी आत्मा झाँकती है । नाम वह धुरी है जिसके आधार पर कथानक के घटनाचक्र गतिमान् होते हैं। नाम होना चाहिए लघु, स्वयं में पूर्ण, आकर्षक एवं जिज्ञासामूलक । इस निकष पर 'मूकमाटी' का नामकरण सार्थक है। बड़ा अनोखापन है इस नाम में। पढ़ते-सुनते ही कौतूहल जाग जाता है। आदि से अन्त तक सम्पूर्ण कथानक में 'मूकमाटी' आत्मा के रूप में विद्यमान है। नाम की विलक्षणता यह है कि वह इन पंक्तियों के माध्यम से उद्धार के लिए छटपटाती / व्याकुल आत्मा की ओर संकेत करती है। 0 O D “स्वयं पतिता हूँ / और पातिता हूँ औरों से, ··· अधम पापियों से/पद - दलिता हूँ माँ ! " (पृ. ४) “ यातनायें पीड़ायें ये ! / कितनी तरह की वेदनायें कितनी और ··· आगे / कब तक पता नहीं / इनका छोर है या नहीं ! " (पृ. ४) " इस पर्याय की / इति कब होगी ? / इस काया की ? च्युति कब होगी ? बता दो, माँ इसे !" (पृ. ५) " और सुनो, / विलम्ब मत करो / पद दो, पथ दो पाथेय भी दो माँ !” (पृ. ५) ... द्वितीय, कथानक की मौलिकता पर विचार करें तो कह सकते हैं कि माटी जैसी निरीह, पद- दलित, उपेक्षित, अकिंचन, तुच्छ एवं अकथ्य वस्तु महाकाव्य का कथ्य बनाना ही विस्मयकारी है। माटी पर भी महाकाव्य लिखा जा सकता है, यह कल्पना से परे है । प्रायः होता यह रहा है कि पुरातन कथानक को ही थोड़े-बहुत परिवर्तन का आवरण पहनाकर या गद्य को पद्य का रूप देकर नवीन कृति के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता रहा है । फलत: उसमें मौलिकता कम, पिष्टपेषण ही अधिक दृष्टिगत होता है । इस परिप्रेक्ष्य में 'मूकमाटी' का कथ्य पूर्णतः मौलिक, अचिन्त्य, अकल्प्य, अभिनव एवं अस्पृष्ट है ।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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