________________
418 :: मूकमाटी-मीमांसा
प्रश्न है कि ऐसा होता क्यों है ? आचार्यश्री कहते हैं कि 'बदले का भाव' ही इसकी जड़ है :
"बदले का भाव वह दल-दल है/कि जिसमें बड़े-बड़े बैल ही क्या,/बल-शाली गज-दल तक बुरी तरह फंस जाते हैं/और/गल-कपोल तक
पूरी तरह धंस जाते हैं।" (पृ. ९७) इस प्रकार की हीनप्रवृत्ति वालों के लेखे देश का क्या महत्त्व ?
"वेतन वाले वतन की ओर/कम ध्यान दे पाते हैं।" (पृ. १२३) लोग भ्रष्टाचार, चोरी और कालाबाजारी से त्रस्त हैं किन्तु वास्तव में दोषी कौन है ? आचार्यश्री के अनुसार :
"चोर इतने पापी नहीं होते/जितने कि
चोरों को पैदा करने वाले ।” (पृ. ४६८) अशान्ति और चोरी का कारण खोजें तो कवि दिनकर की पंक्तियाँ स्मरण आती हैं :
"शान्ति नहीं हो सकती तबतक जबतक/सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो/नहीं किसी को कम हो।" इसी आशय की अभिव्यक्ति 'मूकमाटी' में हुई है :
"अब धन-संग्रह नहीं /जन-संग्रह करो!/और/लोभ के वशीभूत हो
अंधाधुन्ध संकलित का/समुचित वितरण करो।" (पृ. ४६७) आचार्यश्री ने पीड़ा को सुख का माध्यम माना है । वे कहते हैं :
० "पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है
और/पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है।" (पृ. ३३)
“वासना का विलास/मोह है,/दया का विकास/मोक्ष है ।" (पृ. ३८) प्रेरक सन्देशदाता सन्त तपस्वी विद्यासागरजी ने 'मूकमाटी' जैसी कृति से भारत भारती के भण्डार की श्रीवृद्धि की है। उन्होंने धर्म, दर्शन और हिन्दी को जो योगदान दिया, वह प्रणम्य है।
संयम-सौरभ-साधना, जिनको करे प्रणाम । त्याग-तपस्या-तीर्थ का 'विद्यासागर' नाम ।।
.