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मूकमाटी-मीमांसा :: 417 दुर्गम किला हो तुम/और/अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला!" (पृ. ३६६) __ अब कोई समीक्षक बताए कि इन पंक्तियों में निराला की 'सुन बे गुलाब' कविता से कम तिलमिलाहट है ? स्वर्ण के सन्दर्भ में ही एक व्यंग्य द्रष्टव्य है :
“यथार्थ में तुम सवर्ण होते/तो फिर वह
दिनकर का दुर्लभ दर्शन/प्रतिदिन क्यों न होता तुम्हें ?" (पृ. ३६६) वर्तमान में चारों ओर अमरबेल-सी फैल रही पद-लिप्सा की ओर भी आचार्यश्री की पैनी दृष्टि गई। उन्होंने लिखा:
“पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु/पर को पद-दलित करते हैं,
पाप-पाखण्ड करते हैं।/प्रभु से प्रार्थना है कि/अपद ही बने रहें हम!" (पृ. ४३४) नारियों की स्थिति और प्रतिष्ठा के सन्दर्भ में भी 'मूकमाटी' मूक नहीं है । एक कटु सत्य उजागर हुआ है :
“प्राय: पुरुषों से बाध्य हो कर ही
कुपथ पर चलना पड़ता है स्त्रियों को!" (पृ. २०१) विलम्ब से मिलने वाले न्याय के बारे में कितनी सटीक बात कही गई है :
"आशातीत विलम्ब के कारण/अन्याय न्याय-सा नहीं
न्याय अन्याय-सा लगता ही है।" (पृ. २७२) अराजकता और आतंकवाद का अँधेरा बढ़ता ही जा रहा है । प्रश्न है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? उत्तर है :
"बात का प्रभाव जब/बल-हीन होता है/हाथ का प्रयोग तब कार्य करता है । और/हाथ का प्रयोग जब/बल-हीन होता है
हथियार का प्रयोग तब/आर्य करता है।” (पृ. ६०) किन्तु 'आतंकवाद' के कारण क्या स्थिति बन रही है :
"जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती
धरती यह ।” (पृ. ४४१) यही तो हो रहा है देश में । देवालय शस्त्रागार बन रहे हैं। धर्म का स्वरूप परिवर्तित हो गया है । आचार्यश्री ने इस विडम्बना का यथार्थ चित्रण किया है :
"अब तो अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों/और कृपाणों पर भी 'दया-धर्म का मूल है'/लिखा मिलता है ।/किन्तु,/कृपाण कृपालु नहीं हैं वे स्वयं कहते हैं/हम हैं कृपाण/हम में कृपा न !/कहाँ तक कहें अब ! धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है/शास्त्र शस्त्र बन जाता है अवसर पाकर।" (पृ. ७३)