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416 :: मूकमाटी-मीमांसा
विभूषित किया जाय ? यह 'सियाराममय सब जग जानी' का फलितार्थ नहीं तो और क्या है ?
____ अध्यात्म का उजास देने वाली यह कृति संसारियों के लिए भी उतनी ही उपादेय है । 'मूकमाटी' में जीवन संघर्ष और आस्था के स्वर गुंजरित हो रहे हैं :
"संघर्षमय जीवन का/उपसंहार/नियमरूप से
हर्षमय होता है, धन्य!" (पृ. १४) आचार्यश्री का कथन है :
"...जीवन का/आस्था से वास्ता होने पर/रास्ता स्वयं शास्ता होकर
सम्बोधित करता साधक को/साथी बन साथ देता है।" (पृ. ९) किन्तु समस्या है आस्था आत्मसात् कैसे हो ? सूत्र भी दिया है आचार्यश्री ने :
"आस्था के विषय को/आत्मसात् करना हो/उसे अनुभूत करना हो
तो/साधना के साँचे में/स्वयं को ढालना होगा सहर्ष ।” (पृ. १०) जीवन में विषम स्थितियाँ भी आती हैं किन्तु आस्थावान् के लिए वे अभिशाप नहीं। एक उदाहरण देखें :
"कभी-कभी/गति या प्रगति के अभाव में/आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, धृति, साहस, उत्साह भी/आह भरते हैं,/मन खिन्न होता है/किन्तु
यह सब आस्थावान् पुरुष को/अभिशाप नहीं है।” (पृ. १३) । आस्था और निष्ठा के बिना आचरण में आनन्द नहीं आता, यथा :
"आस्था के बिना आचरण में/आनन्द आता नहीं, आ सकता नहीं।
फिर, आस्थावाली सक्रियता ही/निष्ठा कहलाती है।" (पृ. १२०) बहुधा लोग मान लेते हैं कि सुख-दुःख, विजय-पराजय से परे रहने वाले सन्त जन मानवीय स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के सन्दर्भ में कोरे ही रहते हैं। किन्तु 'मूकमाटी' इस धारणा को निर्मूल सिद्ध कर देती है । आपने स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के परिप्रेक्ष्य में सिंह और श्वान की तुलना करते हुए लिखा है :
"...श्वान/स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता, पराधीनता-दीनता वह/श्वान को चुभती नहीं कभी,
श्वान के गले में जंजीर भी/आभरण का रूप धारण करती है।" (पृ. १७०) स्वर्ण को शोषक वर्ग और मिट्टी को शोषित वर्ग का प्रतिनिधि चित्रित करते हुए आचार्यश्री ने लिखा है :
"तुम स्वर्ण हो/उबलते हो झट से,/माटी स्वर्ण नहीं है/पर
स्वर्ण को उगलती अवश्य,/तुम माटी के उगाल हो !" (पृ. ३६४-३६५) वे स्वर्ण को ही सम्बोधित करते हुए कहते हैं :
“परतन्त्र जीवन की आधार-शिला हो तुम/पूँजीवाद के अभेद्य