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________________ भारत भारती के भण्डार की अद्वितीय कृति : 'मूकमाटी' डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' तुलसी पत्र की न तो खेती होती है, न बिक्री। इसके विपरीत तेंदूपत्तों के जंगलों की बड़ी कीमत लगाई जाती है। लेकिन इससे तुलसी के गुण, मान या पवित्रता में कोई अन्तर नहीं पड़ता। जरा सोचें कि ऐसा क्यों? मेरी समझ से तुलसी और तेन्दूपत्ते की स्थितियों के मूल में है उनका आचरण । ___आचरणहीन साहित्यकार की मूल्यवान् कृति भी प्राणहीन होती है जबकि आचरणशील साहित्य साधक की साधारण कृति भी प्रेरणा पराग विकीर्ण करने में समर्थ सिद्ध होती है। साहित्यकारों के लिखे साहित्य को सन्त साहित्य नहीं माना जाता जबकि सन्तों ने जो कहा या लिखा उसे सन्तत्व का अवतरण स्वीकार लिया जाता है। सन्तों द्वारा साधारण ढंग से साधारण भाषा में कही बात भी असाधारण महत्त्व की होती है । इसका कारण यह है कि उनकी अभिव्यक्ति आचरण आभा-मण्डित होती है । सन्त कबीर का साहित्य इसका ज्वलन्त प्रमाण है। कबीर कहते हैं : "माटी के हम पूतरे, मानस राख्यो नाउ । चारि दिवस के पाहुने, बड़ बड़ रूवहिं ठाउ ॥" ___ गहरी बात साधारण शब्दों में वही कह सकता है जो ग्रन्थि रहित हो । भीतर-बाहर एक-सा रहने वाला ही कबीर की भाँति इस सत्य का साक्षात् कर सकता है : "यह तन काचा कुम्भ है, लियाँ फिरै था साथि । ढबका लागा फुटि गया, कछू न आया हाथि ॥" सन्तों की यह परम्परा अक्षुण्ण है । आचार्य विद्यासागर इस परम्परा के भगीरथ हैं । वे सन्तों में कवि और कवियों में सन्त हैं। आचार्यश्री की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों में 'मूकमाटी' अद्वितीय है । ४८८ पृष्ठों में समाहित और चार खण्डों में विभाजित यह कृति आचार्य भामह, रुद्रट, आनन्दवर्धन, दण्डी या पण्डितराज जगन्नाथ की किसी परिभाषा के चौखटे में कैद नहीं की जा सकती। इसे कथा काव्य, खण्ड काव्य, बृहत् काव्य या सर्गबन्ध की कसौटी पर भी नहीं रखा जा सकता । मैं इसे ‘महा काव्य' का समास विग्रह कर ‘महत् काव्य' ही कहूँगा। आचार्यश्री ने माटी का अवलम्ब लेकर जन-मन को अध्यात्म की आभा का उपहार और जीवन-दर्शन दिया है। 'मूकमाटी' का कथ्य गागर में सागर जैसा कुल इतना ही है कि माटी ने युगों-युगों से मंगल घट बनने की साध लिए कुम्भकार की प्रतीक्षा की। माटी मंगल घट बनी और गुरु के पाद प्रक्षालन कर धन्य हुआ । अन्य पात्र भी हैं जिनके सहयोग से कथा गतिशीला और अर्थवती हुई है। 'मूकमाटी' मुक्त छन्द में रचित है । सम्भवत: विशृंखलित युग तक सम्प्रेषण का यही माध्यम आचार्यश्री को युगानुकूल प्रतीत हुआ। सम्पूर्ण कृति में रस-अलंकार का वैविध्य है । शब्दों का अर्थ-सन्धान प्रेरक, रोचक, ग्रहणीय और प्रभावी है। 'आम आदमी' या सर्वहारा वर्ग के बारे में लिखना आज के युगधर्म' से अधिक 'फैशन' हो गया है । और इस प्रकार का लेखन करने वाले अपने आपके मसीहा' होने का भ्रम पाल लेते हैं। इन स्थितियों में माटी' को अपने काव्य का आधार बनाकर मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्षियों, वनस्पतियों तथा अन्य जड़ पदार्थों की व्यथा की अनुभूति कर, उसे वाणी देते हुए, युग के प्रश्नों को समाधान की दिशा देने वाले कृतिकार को किस संज्ञा से सज्जित और किस विशेषण से
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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