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मूकमाटी-मीमांसा :: 411
नारी का सम्मान भारत की प्राचीन परम्परा रही है। पौराणिक मान्यता वहाँ देवों का वास स्वीकार करती है, जहाँ नारियों का आदर-सम्मान हो-- 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।' मध्यकाल में नारी का गौरवमय स्वरूप उससे छिन गया वह पैर की जूती और दासी कही जाने लगी। वर्तमान काल में नारी की महत्ता की ओर पुन: ध्यान गया है। आचार्यश्री ने भी पुरुष की अपेक्षा नारी का महत्त्व स्वीकार किया है :
"धर्म, अर्थ और काम-पुरुषार्थों से/गृहस्थ जीवन शोभा पाता है। इन पुरुषार्थों के समय/प्राय: पुरुष ही/पाप का पात्र होता है, वह पाप, पुण्य में परिवर्तित हो/इसी हेतु स्त्रियाँ
प्रयल-शीला रहती हैं सदा।” (पृ. २०४) बादल की ताड़ना के प्रसंग में उन्होंने धरती को महत्त्व दिया है और बादल को बुरा कहा है । इस प्रसंग में आचार्यश्री का ध्यान इस ओर गया है कि जल तत्त्व तेजी से शतरंज की चाल चलने लगता है । यदा-कदा जल बरसा कर बादल ने थोड़ी वर्षा की भी तो उसके द्वारा दलदल/कीचड़ हो जाता है जो कि कम/अपर्याप्त वर्षा का ही परिणाम है। इससे धरती की एकता-अखण्डता को क्षति पहुँचाने हेतु दलदल पैदा हो जाता है।
शोषण एवं दलन पर आधारित पूँजीवाद का आज सर्वथा विरोध हो रहा है। नगर सेठ के समीप गया मच्छर इस प्रकार धन की गर्हणा करता है :
"अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है, उनकी कृपा कृपणता पर होती है, उनके मिलन से कुछ मिलता नहीं,/काकतालीय-न्यास से/कुछ मिल भी जाय वह मिलन लवण-मिश्रित होता है/पल में प्यास दुगुनी हो उठती है। सर्वप्रथम प्रणिपात के रूप में/उनकी पाद-पूजन की,/फिर/स्वर लहरी के साथ गुणानुवाद-कीर्तन किया/उनके कर्ण-द्वार पर।/फिर भी मेरी दुर्दशा यह हुई।"
(पृ. ३८५) आतंकवाद आज भारत की ही नहीं विश्व की ज्वलन्त समस्या है। सुख-शान्ति के चन्द्रमा को आतंकवाद रूपी राहु निगल जाना चाहता है। 'मूकमाटी' में एक प्रसंग है जब नदी में नगर सेठ को सपरिवार पाकर चोरों-लुटेरों रूप आतंकवाद ने घेरकर समर्पण हेतु विवश किया। सेठ आत्मसमर्पण की बात सोच ही रहा था, तब नदी ने उसे उतावला न बनने का परामर्श दिया । देवगण भी नगर सेठ की रक्षा न कर सके तो नदी की धारा ने उसका उद्धार किया :
"नाव की करधनी डूब गई/जहाँ पर लिखा हुआ था'आतंकवाद की जय हो/समाजवाद का लय हो
भेद-भाव का अन्त हो/वेद-भाव जयवन्त हो'।" (पृ. ४७३-४७४) इसी प्रकार की अनेक सम-सामयिक समस्याओं एवं स्थितियों को आचार्यश्री विद्यासागरजी ने इस 'मूकमाटी' महाकाव्य में स्थान देकर जन-जन के उद्गार देकर उपकार करने का प्रयास किया है।