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"आस्था के बिना रास्ता नहीं / मूल के बिना चूल नहीं ।" (पृ. १०) "यह जीवन बोधित हो, / अभिभूत हुआ, माँ ! / कुछ हलका - सा लगा कुछ झलका-सा / अनुभूत हुआ, माँ!" (पृ. १४-१५ )
शब्द-सौन्दर्य, वर्ण-मैत्री एवं संगीतमयता के उदाहरण के रूप में कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :
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" जहाँ कहीं भी देखा / महि में महिमा हिम की महकी, / और आज ! घनी अलिगुण - हनी / शनि की खनी-सी / भय-मद- अघ की जनी दुगुणी हो आई रात है ।" (पृ. ९१)
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" स्वर के बिना स्वागत किस विध सम्भव है / शाश्वत भास्वत सुख का !" (यहाँ श और भ को परिवर्तित कर दिया गया है )
स्वर संगीत का प्राण है/संगीत सुख की रीढ़ है /और
सुख पाना ही सब का ध्येय / इस विषय में सन्देह को गेह कहाँ ?
निःसन्देह कह सकते हैं - /विदेह बनना हो तो
मूकमाटी-मीमांसा :: 409
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विषय-वस्तु एवं कथ्य के अनुरूप आचार्यश्री ने सरल, गहन एवं प्रांजल भाषा का प्रयोग करके शब्द शास्त्र एवं भाषा विज्ञान पर अपने असाधारण अधिकार का परिचय दिया है। आचार्यश्री का उद्देश्य है - भाव सम्प्रेषण । इसके हेतु उन्होंने उर्दू के प्रचलित एवं सरल शब्दों का प्रयोग करने में रंच मात्र भी संकोच नहीं किया, जैसे :
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स्वर की देह को स्वीकारता देनी होगी / ... इस पर साफ़-साफ़ कहता है शिल्पी का साफ़-सुथरा साफ़ा / खादी का - / पुरुष और प्रकृति के संघर्ष से खर-नश्वर प्रकृति से/उभरते हैं स्वर !/ पर, परम पुरुष से नहीं । दु:स्वर हो या सुस्वर / सारे स्वर नश्वर हैं ।" (पृ. १४३)
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'... वह राही / गुम-राह हो सकता है / उसके मुख से फिर ग़म-आह निकल सकती है। " (पृ. १२)
"आज ! / ओस के कणों में / उल्लास - उमंग / हास-दमंग / होश नज़र आ रहा है। आज ! / जोश के क्षणों में / प्रकाश - असंग / विकास अभंग /तोष नज़र आ रहा है। आज ! / रोष के मनों में / उदास - अनंग / ले नाश का रंग / बेहोश नज़र आ रहा है आज ! / दोष के कणों में / त्रास तड़पन - तंग / ह्रास का प्रसंग / और गुणों का कोष नज़र आ रहा है ।" (पृ. २१)
भाषा-सौन्दर्य का यह विवेचन संस्कृत तत्सम प्रधान एक स्थल को रेखांकित करके स्पष्ट किया जा सकता है । मैंने स्वयं उनको देखा है जब वो अपने विद्यार्थियों / शिष्यों को व्याकरण पढ़ा रहे थे। मुझे बड़ा आनन्द आया उनकी व्याकरण पढ़ाने की पद्धति को देख-सुन कर, हालाँकि मैंने बारह वर्ष व्याकरण पढ़ी है । संस्कृत की 'सृ' धातु के सम्बन्ध में देखिए :
"सृ धातु गति के अर्थ में आती है, / सं यानी समीचीन / सार यानी सरकना””” जो सम्यक् सरकता है/ वह संसार कहलाता है ।” (पृ. १६१)
इस विवेचन के आधार पर यह कहने का साहस किया जा सकता है कि 'मूकमाटी' महाकाव्य के कण-कण