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408 :: मूकमाटी-मीमांसा
"कृपाण कृपालु नहीं हैं/वे स्वयं कहते हैं
हम हैं कृपाण/हम में कृपा न !" (पृ. ७३) ‘कम्बल' की व्युत्पत्ति :
"कम बलवाले ही/कम्बल वाले होते हैं !" (पृ. ९२) 'कायरता' की व्युत्पत्ति :
“तामसता काय-रता है/वही सही मायने में/भीतरी कायरता है !" (पृ. ९४) 'धोखा' की व्युत्पत्ति :
"धोखा दिया ! धोखा ही सही/यूँ बार-बार कह, उसे भी
पुरुष ने आँखों के जल से/धो, खा दिया।" (पृ. १२२) 'संगीत' तथा 'प्रीति' शब्द की व्याख्या :
"संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है और
प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है !" (पृ. १४४-१४५) अनेक स्थानों पर आचार्यश्री ने शब्दों के वर्ण-विपर्यय द्वारा अर्थात् अक्षरों को आगे-पीछे करके भी शब्दों की व्युत्पत्ति कर उनकी सार्थकता को रेखांकित किया है, जैसे : याद और दया : "स्व की याद ही/स्व-दया है/विलोम-रूप से भी
यही अर्थ निकलता है/या "द "द "या"।" (पृ. ३८) हीरा और राही : "राही बनना ही तो/हीरा बनना है,/स्वयं राही शब्द ही
विलोम-रूप से कह रहा है-/रा"ही"ही"रा!" (पृ. ५७) खरा और राख : "तन और मन को/तप की आग में/तपा-तपा कर/जला-जला कर
राख करना होगा/यतना घोर करना होगा/तभी कहीं चेतन-आत्मा खरा उतरेगा।/खरा शब्द भी स्वयं/विलोम-रूप से कह रहा है
राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?/रा"ख"ख"रा!" (पृ. ५७) लाभ और भला : "सुख या दु:ख के लाभ में भी/भला छुपा हुआ रहता है,
देखने से दिखता है समता की आँखों से,/लाभ शब्द ही स्वयं
विलोम-रूप से कह रहा है-/लाभ"भ' "ला"!" (पृ. ८७) भाषा की कर्णसुख-साधक क्षमता अनुप्रास अलंकार एवं ध्वनि साम्य के माध्यम से रूप ग्रहण करती है। भाषा आचार्यश्री के संकेत पर कठपुतली-सी नर्तन करती हुई प्रत्येक पृष्ठ पर ध्वनि साम्य एवं अनुप्रास अलंकार को लुटातीसी प्रतीत होती है । प्रमाण के रूप में कुछ उद्धरण प्रस्तुत हैं :
0 “अबला बालायें सब/तरला तारायें अब ।" (पृ. २)