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'मूकमाटी' : मनोरम महाकाव्य
डॉ. गंगासहाय प्रेमी मैंने परम सन्त आचार्यश्री विद्यासागर के दर्शनों का ही सौभाग्य लाभ प्राप्त नहीं किया है अपितु लगभग एक आधे घण्टे तक उनसे सार्थक, सारगर्भित वार्तालाप करने का गौरव भी प्राप्त किया है । वह भी उस समय/दिन जब उनका मौनव्रत था। मुझ जैसे अतिसाधारण व्यक्ति के लिए उनका मौनव्रत त्याग करना कम से कम मेरे लिए महती उपलब्धि है। उनकी अद्वितीय काव्यकृति पर विवेचना/समालोचना भी उसी कोटि की गरिमामयी घटना है।
'मूकमाटी' महाकाव्य में ऐसे अनेक पक्ष सम्भव हैं, जिन पर विस्तारपूर्वक लेखन करके भी मन सन्तुष्ट नहीं होगा। मुझे दो बिन्दुओं को आधार बनाकर विचार व्यक्त करना है। पहला 'भाषा सौन्दर्य' तथा दूसरा 'सामयिक जीवन की समस्याएँ और निदान।'
__ शास्त्रीय मान्यता के अनुसार रस काव्य की आत्मा है तो शब्दार्थ उसके शरीर का स्थान ग्रहण करते हैं। शब्द और अर्थ की पृथक्-पृथक् महत्ता की परिकल्पना मृग-मरीचिका अथवा आकाश कुसुम के समान है । शब्द और अर्थ में शब्द शरीर है तथा अर्थ उसमें जीवन-संचार करने वाली आत्मा । शब्द के बिना अर्थ की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है तो अर्थ के अभाव में शब्द निरर्थक एवं निष्प्रयोज्य बन जाता है।
___ शब्द और अर्थ की संगति अर्थात् सार्थक शब्दों की क्रमबद्ध एवं नियमानुकूल स्थिति ‘वाक्य' है । वाक्यों का समूह ही 'भाषा' है । 'मूकमाटी' महाकाव्य में आचार्यश्री ने सर्वाधिक ध्यान भाषा सौन्दर्य अर्थात् शब्द योजना पर केन्द्रित रखा है । यह स्वीकार करने में किसी को विचिकित्सा शोभा नहीं देती।
भाषा सौन्दर्य के अनेक आयाम सम्भव हैं । जैसे-शब्द व्युत्पत्ति, ध्वनि साम्य, नवीन अर्थ की स्थापना, शब्दालंकार, अर्थालंकार आदि । आचार्यश्री संस्कृत व्याकरण के अप्रतिम मनीषी हैं। यह तथ्य इस महाकाव्य में यत्रतत्र विचित्र शब्द व्युत्पत्ति के झरोखे से झाँकता प्रतीत होता है, यथा :
"कुम्भकार !'/'कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य
यहाँ पर जो/भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है।" (पृ. २८) 'गदहा' अर्थात् गधा शब्द की व्युत्पत्ति :
"मेरा नाम सार्थक हो प्रभो !/यानी/'गद' का अर्थ है रोग
'हा' का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनूं/"बस !" (पृ. ४०) इसी प्रकार 'रस्सी' शब्द की व्युत्पत्ति, जिसमें रसना रस्सी से कहती है :
“ओरी रस्सी !/मेरी और तेरी/नामराशि एक ही है/परन्तु/आज तू
रस-सी नहीं,/निरी नीरस लग रही है।" (पृ. ६२) 'आदमी' शब्द की मनोरम व्युत्पत्ति :
"संयम के बिना आदमी नहीं/यानी/आदमी वही है
जो यथा-योग्य/सही आदमी है।" (पृ. ६४) 'कृपाण' शब्द की व्युत्पत्ति :