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406 :: मूकमाटी-मीमांसा भूति भल सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई" कहा है । आचार्यजी की मान्यता है कि सार्थक लेखनी सदैव पापाचारों, दुराचारों, दुर्विचारों को ललकारने और धिक्कारने वाली होती है। तभी तो लेखनी स्पष्ट बोलती है :
"लेखनी यह बोल पड़ी कि -/ अध:पातिनी, विश्वघातिनी इस दुर्बुद्धि के लिए/धिक्कार हो, धिक्कार हो ! आततायिनी, आर्तदायिनी/दीर्घ गोध-सी
इस धन-गृद्धि के लिए,/धिक्कार हो, धिक्कार हो !" (पृ. १९७) क्योंकि सृजन तो वही है जिसमें सभी का हित समन्वित हो :
0 “हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है
और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिसके अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो/सही साहित्य वही है ...इस साहित्य को/आँखें भी पढ़ सकती हैं/कान भी सुन सकते हैं
इसकी सेवा हाथ भी कर सकते हैं/यह साहित्य जीवन्त है ना!" (पृ. १११) . "कोई भी कला हो/कला मात्र से जीवन में
सुख-शान्ति-सम्पन्नता आती है ।"(पृ. ३९६) इस उत्तम मंगलकारी चेतनामय प्रकरण से सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाले नवीन भावभूति से युक्त महाग्रन्थ की रचना के लिए आचार्यजी अभिनन्दनीय और प्रणम्य हैं। उनका सन्तत्व कृति में सर्वत्र व्याप्त और जीवन्त है।
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समग्र संसरी दुःखसे भरपूर है,....
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अपना अनुभव ना सला