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मूकमाटी-मीमांसा :: 405
“आज!/ओस के कणों में/उल्लास - उमंग हास - दमंग/होश नज़र आ रहा है ।” (पृ. २१)
इसी प्रकार:
“आस्था से रीता जीवन/यह चार्मिक वतन है, माँ !" (पृ. १६) यों काव्य-यात्रा में शब्द आचार्यजी के समक्ष करबद्ध खड़े-से प्रतीत होते हैं और वे उनका किसी भी प्रकार से प्रयोग करने में सक्षम भी हैं किन्तु उपर्युक्त प्रयोग अस्पष्टता और खुरदुरापन का बोध कराते हैं। एक-दो उदाहरण और भी:
0 "इस पर प्रभु फर्माते हैं।" (पृ. १५०)
0 "माटी के मुख पर/क्रुधन की साज क्यों नहीं छाई ?" (पृ. ३०) इसी प्रकार माटी की संवदेनशीलता की तुलना गदहे से करना भी प्रीतिकार नहीं लगा। यह अलग बात है कि गदहा का अर्थ (गद-रोग, हा-हारक) रोगों का हन्ता बताया गया है। फिर भी भारतीय जनमानस में यह प्रयोग प्रचलित नहीं है। पिंडलियों पर लिपटी गीली मिट्टी की तुलना चन्दन तरु पर लिपटी नागिन से करना भी सटीक नहीं लगता । इसमें साम्य का औचित्य नहीं है । नागिन पतली रस्सी-सी और मिट्टी गीली लेप-सी । इस प्रकार के प्रयोग कहीं-कहीं अवश्य खटकते हैं।
मूल कथा के प्रवाह में अवान्तर प्रसंगों ने कई बार बाधाएँ उपस्थित की हैं। फलत: मूल कथा वहाँ गौण और अवान्तर कथाएँ प्रधान बन गई हैं। यह बात पद-पद पर देखी जा सकती है। रस्सी की गाँठ और मछली का प्रसंग, शूल की महत्ता का प्रतिपादन, रस विवेचन, आतंकवाद आदि पचासों प्रसंग इस प्रकार के हैं जो कथा से सीधे सम्बद्ध नहीं हैं। भले ही उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक महत्त्व अधिक हो। वहाँ कथा या तो शिथिल है अथवा विलुप्त या खण्डित । परिणामत: पाठक ऊबते हुए छूटी कथा का सूत्र पाने के लिए व्यग्र हो उठता है। चेतन व शिल्पी जैसे बहुत से प्रसंग अपनी अतिदीर्घता और व्याख्यात्मकता के कारण भी बोझिल बन गए हैं । यद्यपि श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के 'प्रस्तवन' और आचार्यजी के 'मानस तरंग' में विषय के निहित गूढ़ तथ्यों को बखूबी स्पष्ट किया गया है। इससे बड़ी सहायता मिलती है। इस बृहद् ग्रन्थ में आद्यन्त आचार्य-मनोवृत्ति का आध्यात्मिक व दार्शनिक चिन्तन मुखर और प्रमुख है। शैली प्रवचनात्मक, उपदेशात्मक है जिसमें विवेचन के बाद निष्कर्षात्मक रूप में तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है। वे बीच-बीच में मसलन, यूँ कहें, तात्पर्य यह, अर्थ यह, इससे यही फलित हुआ' आदि का प्रयोग करते हैं :
0 “अर्थ यह हुआ कि/पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है।" (पृ.३३) ० "इससे यही फलित हुआ/कि/संघर्षमय जीवन का/उपसंहार
नियमरूप से/हर्षमय होता है, धन्य !" (पृ.१४) इस सबके बाद भी यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण काव्यकृति है जिसमें जीवन जगत् के विविध क्षेत्रों का, शब्दों में निहित अर्थों का और मानवीय आचरण की विशद, गम्भीर और सहज विवेचना कर सात्त्विक, त्यागी, मंगलकारी साधना को सर्वश्रेष्ठ और अजेय बताया गया है। माटी को रचना का आधार बनाकर इतने बड़े ग्रन्थ का प्रणयन ही अपने आप में एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। जिस लेखनी से इस महाग्रन्थ का सृजन हुआ है उसकी दृष्टि सात्त्विक, उदार और पर-हितकारी है । जो लेखनी सृजन के इस उद्देश्य की पूर्ति करती है, वही सार्थक है । तुलसीदास ने "कीरति भनिति