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________________ 404 :: मूकमाटी-मीमांसा "जिसे दण्ड दिया जा रहा है/उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त । दण्ड-संहिता इसको माने या न माने, / क्रूर अपराधी को क्रूरता से दण्डित करना भी एक अपराध है, न्याय-मार्ग से स्खलित होना है।” (पृ. ४३१) आचार्यजी की यह भी मान्यता है कि पुरुष और प्रकृति का मिलन ही किसी भी तत्त्व या जीवन की सफलता और सार्थकता है । प्रकृति के विपरीत चलकर मनुष्य न तो सुखी हो सकता है और न ही यशस्वी । प्रकृति प्रेम में ही सच्चा सुख और पुरुषार्थ की सिद्धि है : "प्रकृति से विपरीत चलना/साधना की रीत नहीं है/... 'प्रीति बिना रीति नहीं - और/रीति बिना गीत नहीं/ अपनी जीत का-/साधित शाश्वत सत्य का । .....पुरुष होता है भोक्ता/और/भोग्या होती प्रकृति ।" (पृ. ३९१) "पुरुष के जीवन का ज्ञापन/प्रकृति पर ही आधारित है। प्रकृति यानी नारी नाड़ी के विलय में/पुरुष का जीवन ही समाप्त !/... पुरुष और प्रकृति इन दोनों के खेल का नाम ही/संसार है, यह कहना मूढ़ता है, मोह की महिमा मात्र!.../'प्रकृति का प्रेम पाये बिना पुरुष का पुरुषार्थ फलता नहीं।" (पृ. ३९२-३९५) इस प्रकार माटी की कहानी के साथ जीवन-जगत् और अध्यात्म दर्शन के गूढातिगूढ तथ्यों को बड़ी कुशलता, सरलता से आचार्यजी ने इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है। ग्रन्थ में प्रयुक्त शब्दावली उनके नवीन और मौलिक अर्थ तथा व्याख्याएँ जहाँ आचार्यजी की विद्वत्ता, बहुज्ञता और चिन्तनशीलता का परिचय देते हैं वहीं उनकी नवीन दृष्टि की भी साक्षी है । वे शब्दों और एक-एक वर्ण की ऐसी तार्किक व्याख्या करते हैं कि कई बार चकित रह जाना पड़ता है । शब्द के वर्गों को उलट कर, वर्णों को इधर-उधर कर ऐसा अर्थ उद्घाटित करते हैं जो सामान्य के लिए सम्भव ही नहीं है । उदाहरण के लिए धरती के सन्दर्भ में (पृ.२८, ४५२-४५३) आदि पर तथा नारी के लिए प्रयुक्त विभिन्न शब्दों के, जो उन्होंने अर्थ उद्घाटित किए हैं, वे उसकी तह तक पहुँचाने वाले हैं । नारी, महिला, कुमारी, स्त्री, सुता, दुहिता, अबला, मातृ, अंगना आदि की व्याख्याएँ भी इसी प्रकार की हैं, जो पृ. २०१-२०७ पर अवलोकनीय हैं। इसमें शब्दों को उलट-पलट कर भी नए अर्थ प्रस्तुत किए हैं, यथा : राख-खरा, राही-हीरा, लाभ-भला आदि। रस और अलंकारों का प्रयोग भरपूर है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक तो प्रायः मिलेंगे ही। रसों का विशद विवेचन प्रस्तुत करते हुए उनके स्वरूप और प्रभाव का प्रभावी अंकन किया है। इस प्रकार से कई अंश बड़े उत्कृष्ट बन पड़े हैं। इसी प्रकार वातावरण अथवा भावों के चित्रण में जिस भाषा-शैली का प्रयोग किया गया है वहाँ सारे चित्र सजीव हो उठे हैं। चाहे वह समुद्र का प्रलयंकारी रूप हो अथवा आतंकवाद की भयावहता । इसी प्रकार प्रकृति-चित्रण के भी कई चित्र मार्मिक और मोहक बन पड़े हैं। कहावतों, मुहावरों के सटीक प्रयोग के साथ ही सभी भाषाओं के शब्दों का बेधड़क प्रयोग किया गया है । उर्दू, फारसी, हिन्दी, संस्कृत, राजस्थानी यहाँ तक कि अंग्रेजी के शब्द भी प्रयुक्त किए गए हैं। आनुप्रासिकता के लिए कहीं-कहीं की गई कोशिश स्पष्ट दिखाई देती है । इस प्रयास में शब्दों के स्वरूप में परिवर्तन की भी चेष्टा की गई हैं, जो खटकती हैं, यथा :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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