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मूकमाटी-मीमांसा :: 403
...सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है ।" (पृ. १५९-१६०) जीवन की सार्थकता सेवा, शान्ति और विनम्रता में है। स्वार्थ और अहंकार के वशीभूत होकर उसे रण बनाना बुद्धिमानी नहीं है । इसीलिए वे इससे बचने की बात कहते हैं : “जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का न मन दुखाओ !" (पृ. १४९) । वे आत्मा को छोड़कर सभी को विस्मृत करना श्रेयस्कर और पुरुषार्थ मानते हैं : “आत्मा को छोड़कर/ सब पदार्थों को विस्मृत करना ही/सही पुरुषार्थ है" (पृ. ३४९)।। जिसमें द्रवणशीलता नहीं है वह जड़ और मूल्यहीन है । उदारता और तरलता ही मूल्य का आधार है :
“दुखी-दरिद्र जीवन को देखकर/जो द्रवीभूत होता है
वही द्रव्य अनमोल माना है।" (पृ. ३६५) 'अपने और पराए को जानना-समझना ही तो सही ज्ञान' है। बिना उसके ज्ञान कैसा ?:
" 'स्व' को स्व के रूप में / 'पर' को पर के रूप में/जानना ही सही ज्ञान है,
और/'स्व' में रमण करना/सही ज्ञान का 'फल'।” (पृ. ३७५) जिनके मन में ईष्या, द्वेष और अहंकार से परे, अपने-पराए की भावना से दूर रहकर समता का निष्कलुष भाव है, वे ही सच्चे साधक, सिद्ध, सफल मानव हैं। उनके लिए जीवन में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। वे किसी की उपेक्षा नहीं करते और किसी के मुखापेक्षी भी नहीं होते :
"जो माँ-सत्ता की ओर बढ़ रहा है/समता की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है उसकी दृष्टि में/सोने की गिट्टी और मिट्टी/एक है
और है ऐसा ही तत्त्व!" (पृ. ४२०) अर्थ और पद के लोभीजन अपने स्वार्थी दुराचार से न केवल अपने को कलुषित करते हैं बल्कि पदों की गरिमा भी खण्डित करते हैं। पद पाने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए न जाने किन-किन हथकण्डों और दुष्कृत्यों का प्रयोग करते हैं। परिणामत: आज कोई भी पद निर्दोष और निर्मल तथा जन हितकारी नहीं रहा :
“पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु/पर को पद-दलित करते हैं,
पाप-पाखण्ड करते हैं।" (पृ. ४३४) आचार्यजी की मान्यता है कि जब तक जीवन और समाज के बीच अहंकारी, लोभी आतंकवाद जीवित है तब तक शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती :
"जब तक जीवित है आतंकवाद
शान्ति का श्वास ले नहीं सकती/धरती यह ।” (पृ. ४४१) आतंकवाद सभी प्रकार के भ्रष्टाचार, दुराचार, हिंसा और पाखण्ड को पोषित-पल्लवित करता है । इस आतंकवाद को भी समता, विनम्रता और सदाचार से ही बदला जा सकता है। उसे दण्डित करके नष्ट नहीं किया जा सकता। फिर क्रूरता से दण्डित करना भी तो अपराध है :