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402 :: मूकमाटी-मीमांसा
- "जिसने धरती की शरण ली है/धरती पार उतारती है उसे
यह धरती का नियम है"व्रत!" (पृ. ४५१) 'मूकमाटी' को महाकाव्य की कसौटी में कसकर उसके शास्त्रीय परीक्षण का कोई बहुत औचित्य आज के सन्दर्भ में नहीं है, क्योंकि वह विवाद का विषय होगा । तय है कि शास्त्रीय कसौटी पर इसे महाकाव्य सिद्ध करने में कठिनाई होगी लेकिन विषय विस्तार, विषय वैविध्य, आकार और भाषा तथा आलंकारिक कलेवर की दृष्टि से यह निर्विवादत: महाकाव्यीय गरिमा से युक्त महत्त्वपूर्ण बृहत् काव्य है।
धरती और शिल्पकार, सर्जक और सृजन, माटी और कुम्भकार, तत्त्व और कर्म के एकीकरण से सार्थकता की स्थापना करते हुए उसमें माटी से कुम्भ की रचना और फिर अनेक संघर्ष तथा विपरीतताओं को अपनी साधना और आचरण से सबके मंगल के संकल्प के साथ कुम्भ की सफल और यशस्वी यात्रा का चित्रण तो है ही, उस यात्रा के माध्यम से जीवन-जगत्, अध्यात्म और दर्शन, मनुष्य और समाज, सत् और असत्, त्याग और संग्रह, अहंकार और विनम्रता, सत्य और असत्य, विद्या और अविद्या, ज्ञान और अज्ञान, हिंसा और अहिंसा, उदारता और कृपणता, सेवा
और शोषण, राग और विराग, लोभ और दान, वैभव और सादगी की सहज, मौलिक तथा तर्कसंगत विवेचनाएँ भी की गई हैं।
पूरा ग्रन्थ सूक्तियों का महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान् संग्रह कहा जा सकता है । स्थान-स्थान पर पंक्ति-पंक्ति में सूक्तियाँ संयोजित की गई हैं। ग्रन्थ में प्रारम्भ से अन्त तक सूक्तियों के मोती चमकते दिखाई देते हैं। ये सूक्तियाँ पाठक के भीतर एक नए अर्थ की उद्भावना करती हैं। इन सूक्तियों में जीवन का सार भरा हुआ प्रतीत होता है । उदाहरणार्थ :
- "अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं ।" (पृ. १९२) ० "ही' एकान्तवाद का समर्थक है/ भी अनेकान्त,स्याद्वाद का प्रतीक।” (पृ.१७२) ० ही पश्चिमी-सभ्यता है/ 'भी' है भारतीय संस्कृति,भाग्य-विधाता।" (पृ.१७३) ० "हिंसा की हिंसा करना ही/अहिंसा की पूजा है "प्रशंसा।" (पृ. २३३)
“विकास के क्रम तब उठते हैं/जब मति साथ देती है।" (पृ. १६४) __ "विनाश के क्रम तब जुटते हैं/जब रति साथ देती है।" (पृ. १६४) ० "परमार्थ तुलता नहीं कभी/अर्थ की तुला में।" (पृ. १४२)
"जो सम्यक् सरकता है/वह संसार कहलाता है।” (पृ. १६१) "संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है/और प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है।” (पृ. १४४-१४५) __“वासना का विलास/मोह है,/दया का विकास/मोक्ष है।" (पृ. ३८) 0 "ज्ञान का पदार्थ की ओर/दुलक जाना ही/परम आर्त पीड़ा है,/और
ज्ञान में पदार्थों का/झलक आना ही-/परमार्थ क्रीड़ा है।" (पृ. १२४)
"लोभीपापी मानव/पाणिग्रहण को भी/प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।"(पृ.३८६) __“प्रचार-प्रसार से दूर/प्रशस्त आचार-विचार वालों का
जीवन ही समाजवाद है ।" (पृ. ४६१) "करुणा-रस जीवन का प्राण है/"शान्त-रस जीवन का गान है।
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