SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 486
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 400 :: मूकमाटी-मीमांसा. हैं। उसके एवं सूर्य के प्रभाव के कारण बदलियों से पानी के स्थान पर कुम्भकार के आँगन में मोतियों की वर्षा होने लगी : " मुक्ता की वर्षा होती / अपक्व कुम्भों पर / कुम्भकार के प्रांगण में...! पूजक का अवतरण !/ पूज्य पदों में प्रणिपात ।” (पृ. २१० ) मुक्तावृष्टि की चर्चा राजा तक पहुँची। लोभी राजा ने मोतियों को बोरी में भरवाने की चेष्टा की। तभी आकाशवाणी हुई कि यह अनर्थ है। 'बिना श्रम के दूसरों का धन लेना पाप है ।' स्पर्श करते ही मोती बिच्छू के डंक सम गए। लोग मूर्च्छित हो गए । राजा घबराया । अन्ततः कुम्भकार ने स्वतः राजा को मोती समर्पित कर दिए । आज सर्वत्र अर्थ-संचय और अर्थ - मोह ही व्याप्त है । यही अनर्थ का कारण है : "कलि- काल की वैषयिक छाँव में / प्राय: यही सीखा है इस विश्व ने वैश्यवृत्ति के परिवेश में - / वेश्यावृत्ति की वैयावृत्य !” (पृ. २१७) सागर की ईर्ष्या और अहं कम होने की बजाय निरन्तर बढ़ता गया । धरती की रक्षा के लिए सूर्य और सागर में संघर्ष होता है । सागर नाना प्रकार से कुम्भ को नष्ट करने के लिए धरती पर प्रहार करता है । राहु का आह्वान । ओलों की वर्षा । इन्द्र का आगमन । वायु द्वारा धरती की रक्षा । कुम्भ और कुम्भकार अनन्य विश्वास से स्थिर । अन्ततः जलप्लावन के पश्चात् उनकी रक्षा होती है । चतुर्थ खण्ड में कुम्भकार कुम्भ को पूर्ण सुसज्जित आकृति प्रदान करने के बाद अग्नि में पकाने के लिए अवा व्यवस्था करता है । अग्नि में तपकर ही कोई भी साधक निर्मल और निर्दोष बन सकता है। जो अग्नि के ताप को सहकर भी स्थिर है वही सिद्ध और सफल साधक है, जो किसी भी परिस्थिति में अविचल रह सकता है। साधक को तपन की अनुभूति होती है। यहाँ कवि ने बबूल की लकड़ी, कुम्भकार और अग्नि के परस्पर संवादों द्वारा कई तथ्यों का उद्घाटन तथा विवेचन किया है । कुम्भ का अग्नि के प्रति यह कथन बड़ा महत्त्वपूर्ण है : " मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है ।" (पृ. २७७) ऐसे संकल्पवानों को ही अग्नि में भी रसानुभूति होती है : " रस का स्वाद उसी रसना को आता है / जो जीने की इच्छा से ही नहीं, मृत्यु की भीति से भी ऊपर उठी है।" (पृ. २८१ ) अपने व्यक्तित्व को पूर्णतः तिरोहित कर कुम्भ कर्त्तव्य सत्ता में डूबता है । परिणाम परिधि से ऊपर उठना या न उठना, यह तो साधक पर निर्भर है कि वह शिव बनना चाहता है अथवा शव । इस चतुर्थ खण्ड को इतना विविधवर्णी बनाया गया है कि उसे समेट पाना सामान्य व्यक्ति के सामर्थ्य की बात नहीं हो सकती । अवा तैयार करने से लेकर पके हुए कुम्भ को बाहर निकालकर, फिर जो उसकी यात्रा अंकित की गई है उसमें जीवन-जगत् के प्राय: सभी पक्षों को जोड़ा गया है। यथा - लकड़ी की वेदना, अग्नि की भावना, कुम्भकार की कल्पना, अध्यात्म-दर्शन की विवेचना, कुम्भ का परीक्षण, इसी के साथ संगीत के सप्त स्वरों की नवीन व्याख्या, जिज्ञासाओं का समाधान, श्रम और कला की महत्ता का प्रतिपादन, सेठ द्वारा कुम्भ का मंगल कलश के रूप में उसकी सज्जा, सेठ के यहाँ स्वामीजी (सन्त) का आगमन, माटी के कुम्भ के जल से स्वामीजी की अर्चना, सोना-चाँदी एवं रत्न - स्फटिक पात्रों की उपेक्षा से पीड़ा, गोचर वृत्ति तथा भ्रमर वृत्ति आदि की विवेचना, सत्पात्र की मीमांसा, सन्तों की परिभाषा,
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy