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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 399 कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है और जिसका नामकरण हुआ है... 'मूकमाटी'।" ___ इस अतुकान्त बृहत् काव्य संग्रह को चार खण्डों में विभाजित किया गया है- १. संकर नहीं : वर्ण-लाभ, २. शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, ३. पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन, ४.अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख। पहले खण्ड में कुम्भकार द्वारा माटी के परिशोधन का चित्रण है। कुम्भकार माटी को कूट-छान कर, कंकड़ आदि विकारों से अलग कर सृजन के योग्य बनाता है । सृजन के विपरीत आचरण वाले तत्वों को यदि अलग न किया गया तो सृजन की क्रिया निर्बाध पूरी नहीं हो सकती । यदि किसी प्रकार पूरा किया भी जाय तो वह निर्दोष नहीं हो सकता । कंकड़ आदि सब मंगल घट के सृजन में बाधक हैं। अत: माटी को सबसे पहले दोष रहित कर निर्मल, तरल और लोचदार रूप दिया गया। यहाँ वर्ण का आशय रंग मात्र से न लेकर आचरण से जोड़ा गया है : "वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से/वरन् चाल-चरण, ढंग से है।” (पृ. ४७) शुद्ध और लोचदार माटी से ही घट का सृजन सम्भव है । कुम्भकार की आन्तरिक भावना ही माटी को मंगल घट का आकार देगी। दूसरे खण्ड में कुम्भकार द्वारा कुदाली से माटी खोदते समय काँटे को लगी चोट के आक्रोश और प्रतिकार भावना का वर्णन है । कुम्भकार द्वारा ग्लानि और खेद व्यक्त करने पर काँटे का आक्रोश शान्त हो जाता है । इसी खण्ड में कवि ने सभी रसों के रूपों और स्वभावों का विस्तृत किन्तु सूक्ष्म विवेचन किया है। इसके साथ ही संगीत, प्रकृति, ऋतुओं आदि का भी चित्रण है जिसमें दार्शनिक विवेचन का प्रभाव है। यहाँ आकर मूल कथा ठहर-सी जाती है। प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है । कथा के अतिरिक्त अन्य बातें प्रमुख हो जाती हैं। बीच-बीच में उसे मूल से जोड़ने का स्मरण-सा कराया जाता है किन्तु कथा को गति नहीं मिलती। आध्यात्मिक और दार्शनिक विवेचन के सागर में कथा विलुप्त-सी लगती है। तीसरे खण्ड में कथा को नया जीवन मिलता है । कुम्भकार के माध्यम से माटी के उद्धार और विकास का चित्रण करते हुए पुण्य कर्मों की महत्ता और पाप कर्मों से मुक्त रहने का प्रतिपादन किया गया है। धरती के प्रति नाना प्रकार के अत्याचार किए जाने पर भी वह सब सहती है : "अपने साथ दुर्व्यवहार होने पर भी/प्रतिकार नहीं करने का संकल्प लिया है धरती ने,/इसीलिए तो धरती/सर्व-सहा कहलाती है सर्व-स्वाहा नहीं।" (पृ. १९०) एक ही तत्त्व अपने स्वभाव के कारण अच्छा-बुरा बनता है । सागर रत्नाकर भी है और विष का भण्डार भी। धरती का सारा वैभव उसके पास है । बाँस, नाग, सूकर, मत्स्य, गज, मेघ, शुक्तिका आदि सभी में मोती होता है। ये सभी धरती से पोषित हैं। फिर भी ईर्ष्या करने वाले धरती का अपकार करते हैं। चन्द्रमा, सागर, जल इसी प्रकृति के हैं। सागर ने कम्भकार द्वारा निर्मित माटी के घट को वर्षा से गलाकर नष्ट करने का परा प्रयास किया. क्योंकि 'सागर में परोपकारी बुद्धि का अभाव जन्मजात अभाव है।' 'अर्थ की आँखें जब परमार्थ को देखने में असमर्थ होती हैं तो इसी प्रकार के कुविचार उत्पन्न होते हैं। धरती तो माँ है-उदार, सहनशील, संयमी । स्त्री, महिला, नारी, अबला, सुता, दुहिता, कुमारी, माता, अंगना आदि सभी धरती के ही रूप हैं जो मृदुता, मुदिता, शीला, सरला, तरला गुणों से युक्त
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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