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सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाला महाग्रन्थ : 'मूकमाटी'
डॉ. गंगाप्रसाद गुप्त 'बरसैंया' आचार्य विद्यासागर देश के जाने-माने प्रख्यात जैन सन्त हैं जिन्होंने जीवन और समाज को बहुत निकट से बड़ी गम्भीरता से देखा-जाना-समझा है, और भारतीय आध्यात्मिक वाङ्मय तथा दर्शनों का सूक्ष्म अध्ययन-चिन्तन-मनन करते हुए आत्मसात् कर जीवन में एकाकार भी किया है । यही कारण है कि उनकी वाणी केवल उपदेशक की वाणी न होकर श्रोताओं और परिवेश के भीतर प्रवेश कर मानवीय आचरण के लिए उत्प्रेरित करने वाली चेतना-शक्ति भी है, जिसके साक्षी उनके तमाम वे ग्रन्थ हैं जिनमें उनके विचारों का संग्रह है अथवा जिनकी रचना उन्होंने स्वयं की है। उन सबका प्रमुख उद्देश्य है सदाचारी मानवता की स्थापना और मानव-कल्याण, जहाँ विषयगत स्वार्थों की कलुषता का स्पर्श न हो और न किसी प्रकार की संकुचित वृत्ति ही; जहाँ शृंगार भी अध्यात्म से जुड़ जाता है और राग-विराग के अन्तर समाप्त हो जाते हैं।
मूकमाटी' उनका नवीनतम ४८८ पृष्ठीय बृहत् काव्य-ग्रन्थ है जिसमें माटी को रचना का आधार बनाया गया है। माटी को केन्द्र में रखकर जीवन और समाज के विविध पक्षों की जैसी गम्भीर-व्यापक और मौलिक विवेचना की है वह उनके चिन्तन का सार कहा जा सकता है। माटी को हमारे यहाँ बहुत साधारण, उपेक्षणीय तथा निर्मूल्य माना जाता है जबकि सृष्टि का सभी कुछ उस माटी पर ही आधारित है । आचार्य विद्यासागरजी ने अपने इस ग्रन्थ में यही प्रतिपादित करना चाहा है कि 'माटी' कोई साधारण, गैर महत्त्वपूर्ण, उपेक्षणीय वस्तु नहीं है बल्कि सभी का आधार और सभी की जननी है। सभी पर उसका मातृवत् ममत्व है । आवश्यकता इस बात की है कि माटी को सृजन और कर्म से समन्वित कर समाज के लिए उपयोगी बनाया जाय । यह बात माटी पर ही नहीं, सभी पर लागू होती है । सृजन-शक्ति से रहित अनपयोगी वस्त अमल्य होकर भी निर्मल्य और निरर्थक है। कम्भकार की सजन कला का संसर्ग पाकर घट के रूप में वही सभी के लिए उपयोगी और महत्त्वपूर्ण बन जाती है । उसका जीवन सार्थक बन जाता है । कुम्भकार अपने सृजन और संसर्ग से उसे सौभाग्य प्रदान करता है । ऐसा कुम्भकार, जिसके मन में उत्तम सृजनकला भावना के साथ ही व्यक्तिगत स्वार्थ का न कलुष है और न किसी के प्रति कोई कषाय । ऐसी सार्वजनीन सेवा भावना से सृजित कुम्भ भी उसी भावना से आपूरित है । कलाकार की भावना ही तो सृजन को भी भावना मण्डित करती है । स्वार्थ और अहंकार की सीमाओं से ऊपर उठे हुए सृजन संसार की विषम-से-विषम स्थितियों से भी संघर्ष कर अपने लक्ष्य को पा लेते हैं। भयंकर-से-भयंकर विपरीत शक्तियाँ भी अन्तत: या तो पराजित होती हैं अथवा उनका हृदय परिवर्तित होता है । सत्य और सर्वकल्याण की भावनाएँ सर्वाधिक शक्तिशाली तथा अजेय होती हैं । राग-द्वेष, लाभ-अलाभ तथा विषय-वासनाओं, व्यक्तिगत मानअसम्मान की भावनाओं से परे रहकर विनम्रतापूर्वक सत्य और परहित के मार्ग पर चलनेवाले कभी विचलित नहीं होते। शक्ति और सम्पन्नता से व्यक्ति बड़ा तथा महत्त्वपूर्ण नहीं बन सकता । व्यक्ति के आचरण और भाव-विचार ही उसे महान् बनाते हैं। यही इस 'मूकमाटी' का प्रमुख स्वर है । इस रचना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए स्वयं स्वामीजी लिखते हैं : “जिसके प्रति-प्रसंग-पंक्ति से पुरुष को प्रेरणा मिलती है-सुषुप्त चैतन्य-शक्ति को जागृत करने की; जिसने वर्णजाति-कुल आदि व्यवस्था-विधान को नकारा नहीं है परन्तु जन्म के बाद आचरण के अनुरूप, उनमें उच्च-नीचता रूप परिवर्तन को स्वीकारा है । इसीलिए 'संकर-दोष' से बचने के साथ-साथ वर्ण-लाभ को मानव-जीवन का औदार्य व साफल्य माना है। जिसने शुद्ध-सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है; जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित