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मूकमाटी-मीमांसा :: 397
इस महाकाव्य में ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं जिनमें कवि का तत्त्व-चिन्तन पूरी तरह उभरकर सामने आया है। किसी भी रचना की सफलता तभी है जब पाठक पूरे मनोयोग से उसमें खो जाय और वह रचना उसे बार-बार पढ़ने को प्रेरित करती रहे । आचार्यश्री की यह रचना इस दृष्टि से सफलतम कृति कही जा सकती है, क्योंकि बार-बार पढ़ कर ही पाठक इसके भावों की थाह पा सकता है।
भारतीय ज्ञानपीठ ने न केवल जैन साहित्य अपितु जैनेतर साहित्य को भी प्रकाश में लाने का जो बीड़ा उठाया है वह नि:सन्देह अभिनन्दनीय है । लोकोदय ग्रन्थमाला के ४६५ वें ग्रन्थांक के रूप में इस महान् कृति को प्रकाश में लाकर ज्ञानपीठ ने अपनी साहित्य माला में एक और मोती पिरो लिया है।
['राजस्थान पत्रिका' (दैनिक), जयपुर-राजस्थान, २८ अक्टूबर, १९९०]
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बीच में ही उकरोंकी ओर से... ...... और खरा
बने कंचन-सा !"