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'मूकमाटी' : आत्मा का उद्धार करने वाली आध्यात्मिक कृति
सौभाग मल जैन आचार्य विद्यासागरजी दिगम्बर जैन परम्परा के ऐसे महान् सन्त हैं जो सही मायनों में साधना व तपस्यारत होकर आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हैं। आचार्य विद्यानन्दजी ने उनके बारे में एक बार यह सही कहा था कि वे इस पंचम काल में चतुर्थ काल के सन्त हैं। माटी जैसी निरीह और पद-दलित वस्तु पर जब इस महान् सन्त की लेखनी चली तो 'मूकमाटी' जैसे महाकाव्य का सृजन हुआ, जिसे समझना आसान नहीं। 'मूकमाटी' आत्मा का उद्धार करने वाली ऐसी आध्यात्मिक कृति है जिसमें जैन दर्शन का एक तरह से पूरा निचोड़ है।
___साहित्य का मूल्यांकन कृति स्वयं करती है। उसे समझने के लिए व्यक्ति को सहृदय तथा जिज्ञासापूर्ण होने के साथ-साथ एक तरह से उसमें पैठ जाना चाहिए। इस महाकाव्य में धर्म, सिद्धान्त, नव रस, शब्दों का अद्भुत विच्छेद तथा उनके नए-नए अर्थ समाहित हैं जो आचार्यश्री की साधना तथा अद्भुत प्रतिभा का परिचय देते हैं । यह महाकाव्य एक रूपक महाकाव्य है जिसमें रूपकों के द्वारा माटी की मंगल कलश बनने तक की यात्रा का वर्णन किया गया है। अब तक धरती पर ही साहित्य-सृजन हुआ है, मिट्टी निरीह होने से साहित्यकारों की दृष्टि से भी ओझल रही लेकिन आचार्य विद्यासागरजी ने माटी पर यह महाकाव्य लिखकर साहित्य के क्षेत्र में महान् योगदान किया है। इस महाकाव्य से उनकी काव्य-प्रतिभा भी पूरी तरह खुलकर सामने आई है। प्रस्तवक लक्ष्मीचन्द्र जैन के शब्दों में : “कर्मबद्ध आत्मा की विशुद्धि की ओर बढ़ती मंज़िलों की मुक्ति-यात्रा का रूपक है यह महाकाव्य ।" माटी की वेदना-व्यथा को क्या कभी कोई व्यक्ति इतनी मार्मिकता से व्यक्त कर पाया है :
"इस पर्याय की/इति कब होगी ?...बता दो, माँ "इसे ! ...कुछ उपाय करो माँ !/खुद अपाय हरो माँ !
और सुनो,/विलम्ब मत करो/पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ५) इस महाकाव्य में रचयिता ने शब्दों के जो नए अर्थ दिए हैं, वे वास्तव में चमत्कारी हैं। उदाहरण के रूप में
"युग के आदि में/इसका नामकरण हुआ है/कुम्भकार ! 'कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो
भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है ।" (पृ. २८) इसी तरह गधे की भगवान् से यह प्रार्थना देखें :
"मेरा नाम सार्थक हो प्रभो!/यानी/गद का अर्थ है रोग
हा का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनें / "बस ।” (पृ. ४०) १. 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' २. 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' ३. 'पुण्य का पालन : पापप्रक्षालन' ४. 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख'- शीर्षक चार खण्डों में विभक्त इस महाकाव्य में मिट्टी के परिशोधन से लेकर कुम्भ बनने, उसके अवा में तपाने तक की प्रक्रिया न केवल काव्यबद्ध है अपितु इस बिरल सन्त ने इसके माध्यम से जो विचार दिए हैं वे वास्तव में हृदय को छूने वाले हैं।