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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 395 ...मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है।" (पृ. २७७) घट की यह इच्छा आग में तपने के बाद पूरी होती है। घट की पूर्णता तभी सिद्ध होती है, जब एक सेठ का सेवक उसे अच्छी तरह से परख कर प्राप्त कर लेता है । जब उसका उपयोग साधु-सन्तों को आहार देने में लाया जाता है तो उसकी महिमा बढ़ जाती है और वह मंगल कलश का रूप धारण कर लेता है। आगे नदी के प्रवाह से सेठ को यही कलश बचाता है। ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' इस महाकाव्य का चौथा और अन्तिम सर्ग है । यहाँ आचार्य विद्यासागरजी कुम्भ की परिपक्वता के द्वारा मनुष्य की आत्मोन्नति का परिचय देना चाहते हैं : " 'कुम्भ की कुशलता सो अपनी कुशलता' यूँ कहता हुआ कुम्भकार/सोल्लास स्वागत करता है अवा का।" (पृ. २९६) मिट्टी अग्नि-स्पर्श के बाद अपने पर्याय को खोती है और नए रूप को धारण कर लेती है । अन्तिम खण्ड एक प्रकार से 'मूकमाटी' का मस्तिष्क है । कवि यहाँ अपने लौकिक और अलौकिक चिन्तन को कविता के रूप में ढालने में समर्थ हुए हैं। आज के मानव की समस्याओं का समाधान अपनी रीति से प्रस्तुत करते हुए वे आगे बढ़ते हैं। भारतीय समाज जिस आतंक से भयभीत है, उसे कवि अपनी वाणी द्वारा यूँ शब्द प्रदान करता है : "जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती धरती यह,/ये आँखें अब/आतंकवाद को देख नहीं सकतीं।" (पृ. ४४१) इसका कारण क्या हो सकता है ? कवि स्वयं उत्तर देता है। असत्य जब चारों ओर फैल गया हो तो 'सत्य' की क्या दशा होती है, यह द्रष्टव्य है : "सत्य का आत्म-समर्पण/और वह भी/असत्य के सामने ? हे भगवन् !/यह कैसा काल आ गया,/क्या असत्य शासक बनेगा अब ? क्या सत्य शासित होगा ?/हाय रे "जौहरी के हाट में आज हीरक-हार की हार !" (पृ. ४६९) यद्यपि असत्य के बाजार में सत्य आत्म-समर्पण करता हुआ दृष्टिगोचर होता है, परन्तु यह कुछ ही दिनों के लिए है। जैसे सूर्य की प्रथम किरण के आगमन के साथ साथ अन्धकार ओझल हो जाता है, उसी प्रकार असत्य को भी एक दिन सत्य के सामने आना होगा । असत्य कभी सत्य के सामने टिक नहीं पाता, तब सत्य और अधिक प्रज्वलित होता है और उससे निकलकर फैलती हैं मंगल किरणें, जो दूर करती हैं अज्ञान को, अन्धकार को और अमंगल को : “यहाँ "सब का सदा/जीवन बने मंगलमय छा जावे सुख-छाँव,/सबके सब टलें-/वह अमंगल-भाव ।” (पृ. ४७८) आचार्य विद्यासागरजी अपने महाकाव्य 'मूकमाटी' के द्वारा अपने इन विचारों को विश्व के सामने प्रस्तुत करते हैं। अन्त में वे आशीर्वाद व्यक्त करते हैं। सन्त कवि की यह कृति अध्यात्म-प्रतीकात्मक मंगलमय महाकाव्य है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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