________________
394 :: मूकमाटी-मीमांसा
इस महाकाव्य के चार सोपान हैं । इसी तरह कवि ने मिट्टी की चार मंज़िलों को चार भागों में विभक्त किया है। पहले भाग का नाम संकर नहीं : वर्ण-लाभ' है। इस अध्याय में कवि कंकर और काँटों से भरे मिट्टी के उस रूप को प्रस्तुत करता है, जो प्रकृति के एक जीव का है। एक प्रसंग में स्वयं मिट्टी अपनी माँ पृथ्वी से प्रश्न करती है। माँ, मेरी पर्याय का अन्त कब होगा ? इसकी स्थिति संघर्ष में फंसे हुए प्राणी के समान है। इसलिए मिट्टी पूछती है :
"स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से,/"अधम पापियों से पद-दलिता हूँ माँ !/सुख-मुक्ता हूँ/दुःख-युक्ता हूँ तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ !" (पृ. ४) "इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की
च्युति कब होगी?/बता दो, माँ "इसे !" (पृ. ५) मनुष्य अपने विवेक के आलोक में अपने अस्तित्व और आत्मा के स्थान-मान को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है तो उसके सामने यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इस जीवन का उद्देश्य क्या है :
"माटी का संशोधन हुआ,/माटी को सम्बोधन हुआ,/परन्तु,
निष्कासित कंकरों में/समुचिंत-सा अनुभूत/संक्रोधन हुआ।" (पृ. ४५) कुम्हार मिट्टी में पानी मिलाकर उसको खूब भिगोता है और उसमें युक्त कंकर-पत्थरों को निकाल कर उस मिट्टी को शुद्ध बनाता है । अब यह घट का स्वरूप धारण करने योग्य बन जाती है । यहाँ प्रथम अध्याय समाप्त हो जाता
'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' नामक द्वितीय अध्याय अथवा सर्ग प्रतीकात्मक है। इसमें घट का निर्माण होता है। इसी प्रकार मनुष्य भी अपने व्यक्तित्व का निर्माण मिट्टी के घट के समान ही करता है। इस भाग में कवि ने महाकाव्य के आवश्यक गुण अर्थात् नव रसों की व्याख्या, ऋतुओं का वर्णन, संगीत की विविधता का परिचय कराया है। कवि का दार्शनिक हृदय अपनी मूलधारा को नहीं भूलता । वह फिर मनुष्य की एक मूल समस्या की तरफ़ हमारा ध्यान आकर्षित करता है :
"आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है
और/है यानी चिर-सत्/यही सत्य है यही तथ्य"!" (पृ. १८५) इस खण्ड के सारांश को यूँ कह सकते हैं-शब्द का अर्थ समझना 'शब्द' है और इसका अनुभव पाना 'बोध' है । जीवन की सार्थकता का अन्वेषण ही 'शोध' है । इसी प्रकार से घट का संस्कार होता है । वह आग में तपकर परिपक्वता पाने को तत्पर है।
इसके बाद महाकव्य तीसरे खण्ड में प्रवेश करता है । इसका शीर्षक 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' है। यह मंगल घट की परीक्षा का समय है । वह सूर्य के ताप से सूखता है । बादलों के प्रकोप से बचता है। आवे की आग में अपने आप को तपाता है। इस क्रिया के बाद वह पूर्णत्व पाता है । इसके साथ-साथ उसमें लोककल्याण की भावना जगती है। यही पुण्योदय है। जब तक मनुष्य भी इन मंज़िलों को पार नहीं करता, तब तक उसमें पुण्योदय का प्रवेश नहीं होता।
"जब तक उनका जलना नहीं होगा/मैं निर्दोष नहीं हो सकता।