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392 :: मूकमाटी-मीमांसा
इसी प्रकार विद्यासागरजी भी सीधे विषय-प्रवेश करते हैं । हम पहले बता चुके हैं कि महाकाव्य में आठ सर्ग होना चाहिए, परन्तु इस महाकाव्य के चार ही सर्ग हैं । प्रत्येक सर्ग आत्मा के संगीत से भरपूर है । इसकी गूँज अनन्त है। मेरी दृष्टि में ये चार खण्ड चार दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
'मूकमाटी' जैसे अध्यात्म काव्य को ऐतिहासिक कथा अथवा महापुरुष की जीवन-गाथा की आवश्यकता नहीं है । असंख्य इतिहासों को अपने सीने पर लिए हजारों महापुरुषों के जीवन के ज्वारभाटा तथा उतार-चढ़ाव को मौन रूप से देखते हुए लाखों भव्यात्माओं और दिव्यात्माओं को अपनी गोदी में लेकर चिरनिद्रा में सुलाने वाली 'माटी' ही इसकी कथावस्तु है । यहाँ हम विद्यासागरजी की प्रतिभा तथा उनके काव्य की प्रतीकात्मकता को देख सकते हैं । मिट्टी जैसी पद-दलित, उपेक्षित वस्तु को महाकाव्य की कथावस्तु बनाकर और उसकी मूक वेदना को वाणी प्रदान करके कवि ने एक अमूल्य कार्य किया है।
(२) नायक : महाकाव्य का नायक देवता, किसी उच्च कुल में जन्मा क्षत्रिय या किसी ऊँचे वंश का राजा अथवा अनेक वंशों में जन्म लेने वाले राजा हो सकते हैं । परन्तु, वह नायक धीरोदात्त गुण रखने वाला हो, उसका व्यक्तित्व समाज में निश्चय रूप से सद्भावनाओं को वर्धित करने वाला हो, उसके साथ-साथ उसमें संरक्षक गुण विद्यमान होना चाहिए । यहाँ पर 'मूकमाटी' का नायक माटी से बना हुआ मंगल घट है अर्थात् मिट्टी ही यहाँ प्रमुख है ।
करके उसे कथा का प्रवाह इस प्रकार है - कुम्हार घट बनाने के पहले मिट्टी में रहने वाले कंकड़-पत्थर को शुद्ध बनाता है तथा पानी मिलाकर मिट्टी को मृदु बनाता है। फिर उसे चाक पर चढ़ाकर घट का रूप देता है। हवा उसके अन्दर रहने वाले जलतत्त्व को सुखाती है। इस बीच में सूर्य उसे अपने ताप से दृढ़ बनाता है । उस दृढ़ता को और मजबूती प्रदान करने के लिए आग के आवे में तपाया जाता है। जब मिट्टी का घड़ा आवे से निकाला जाता है तो वह मंगल घट बन जाता है । अन्योक्ति के द्वारा आचार्यजी ने यहाँ दार्शनिक व्याख्यान प्रस्तुत किए हैं। समूचे काव्य में कुम्हार और मिट्टी ही प्रमुख रूप से हमारे सामने आते हैं । इसलिए मिट्टी को ही हम नायक का स्थान दे सकते हैं ।
(३) रस : महाकाव्य में सभी रसों का वर्णन अनिवार्य है। जब व्यापक जीवन की गाथा का वर्णन होता है तो उसके विभिन्न मोड़ पर दूसरे - दूसरे रसों का प्रयोग होता है। शास्त्रकारों ने शृंगार रस, वीर रस तथा शान्त रस को प्रधान रस माना है। इन तीन रसों में से किसी एक रस को महाकाव्य का मूल रस माना जाता है और दूसरे रस गौण रूप काव्य की धारा को अग्रसर करते हैं ।
'मूकमाटी' आध्यात्मिक दृष्टिकोण से युक्त महाकाव्य है जिसमें मूल कथा के साथ-साथ चिन्तन और दर्शन गंगा-जमुना के समान सुप्त रूप से साथ-साथ बहते हैं । शान्त रस को 'मूकमाटी' महाकाव्य का प्रधान रस मान सकते हैं ।
(४) छन्द : काव्य में कथा के विकास तथा प्रवाह की दृष्टि से एक सर्ग में अथवा खण्ड में एक ही छन्द का होना अनिवार्य
है । सर्ग के अन्त में छन्द का परिवर्तन होना चाहिए। कभी-कभी विविधता तथा अद्भुत रस की निष्पत्ति के लिए एक सर्ग में विविध छन्दों का उपयोग किया जाता है। 'मूकमाटी' काव्य लौकिक तथा अलौकिक जिज्ञासा और सत्यान्वेषण की विचित्र शैली को लेकर चलता है। ऐसी स्थिति में भावों को छन्द के बन्धन में बाँधने से बनावटीपन आता । इस बात को ध्यान में रख कवि ने 'स्वच्छन्द' शैली को काव्य का छन्द बनाया है। इसी कारणवश छन्द मुक्त स्वतन्त्र धारा समूचे काव्य में विद्यमान है ।
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(५) वर्णन : महाकाव्य यथार्थ और वैविध्यमय वर्णन को लेकर चलता है। जैसा कि प्रकृति के अनेक रूप उसमें अपना चित्रण लेते हुए आगे बढ़ते हैं-सागर से झरनों तक, टीले से पर्वत तक, वसन्त से पतझड़ तक, टिमटिमाते तारों से चमकते चन्द्रमा तक, लहलहाते पौधों से खिलते - खिलते फूलों तक का वर्णन किसी न किसी रूप में महाकाव्य