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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 391 (१) निबद्ध काव्य (२) अनिबद्ध काव्य और (३) प्रबन्ध काव्य । (१) निबद्ध काव्य : इसके अन्तर्गत आने वाली रचनाओं में एक विचारधारा अथवा एक भावसूत्र में छन्द व्यवस्थित रूप से बँधे हुए रहते हैं। (२) अनिबद्ध काव्य : इसको मुक्तक काव्य का नाम भी दिया जाता है। इसकी रचनाएँ स्वतन्त्र हैं। इन्हें किसी भी क्रम में रख सकते हैं। (३) प्रबन्ध काव्य : प्रबन्ध काव्य की रचना में एक कथा होती है जो क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ती है । यहाँ छन्द भाव का पोषक बनकर साथ-साथ चलते हैं। छन्द के क्रम को स्वच्छन्द में परिवर्तन नहीं कर सकते । यह प्रबन्ध काव्य का प्रमुख लक्षण है । इसको दो भागों में विभाजित किया जाता है-महाकाव्य तथा खण्ड काव्य । महाकाव्य : महाकाव्य के रूप तथा स्वरूप के बारे में संस्कृत के आचार्यों के विचार प्रमुख हैं। ‘अग्नि पुराण' में काव्य के लक्षण की चर्चा में महाकाव्य के स्वरूप का वर्णन मिलता है । आचार्य दण्डी का काव्यादर्श,' विद्यानाथ का 'प्रतापरुद्र-यशोभूषण, हेमचन्द्र का 'काव्यानुशासन' और विश्वनाथ के साहित्य दर्पण' में महाकाव्य के लक्षणों का परिचय मिलता है। __हिन्दी साहित्य के विद्वान् तथा विमर्शक डॉ. भगीरथ मिश्रजी ने अपनी कृति में महाकाव्य के निम्नलिखित सात लक्षण बताए हैं। इन्हीं लक्षणों की कसौटी के आधार पर 'मूकमाटी' का अध्ययन करेंगे। (१) कथावस्तु : महाकाव्य की कथा में मूलत: विस्तृत और सम्पूर्ण जीवन की घटनाओं का वर्णन होना चाहिए। इसमें न्यूनतम आठ सर्ग हो । तथा प्रत्येक सर्ग के अन्त में आने वाले सर्ग की सूचना होनी चाहिए। कथा का प्रारम्भ आशीर्वचन अथवा मंगलाचरण से होना चाहिए। इसकी कथा ऐतिहासिक हो या किसी महापुरुष की जीवन-गाथा से सम्बन्धित हो। 'मूकमाटी' इन सभी लक्षणों से ऊँचा है । जब सारा काव्य ही मंगलमय हो तो वहाँ मंगलाचरण की क्या आवश्यकता ? घर-मठ के व्यामोह को त्याग कर, आत्म-कल्याण के मार्ग पर निरन्तर चलने वाले, दिशाओं को ही अपना अम्बर बनाने वाले आचार्य विद्यासागरजी का प्रति शब्द मन्त्रोपदेश है एवं प्रत्येक पंक्ति आशीर्वचन है। मेरी दृष्टि में ऐसी महान् कृति के आरम्भ में आशीर्वचन अथवा मंगलाचरण की आवश्यकता नहीं है। आचार्यश्री सीधे विषय-प्रवेश करते हैं : “सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई,/और "इधर'नीचे निरी नीरवता छाई,/...करवटें ले रहा है ।" (पृ. १) ____ 'मूकमाटी' में आचार्य विद्यासागरजी सीधे विषय-प्रवेश कर गए हैं। ऐसे तो प्राचीन काल में भी मंगलाचरण के उल्लंघन करने वाले उदाहरण मिलते हैं। महाकवि कालिदास की मेरु कृति 'कुमारसम्भव' में मंगलाचरण नहीं है । कवि सीधे हिमालय के वर्णन को लेकर चलता है । इसी को मंगलाचरण का स्थान दिया गया है, क्योंकि हिमालय हमारी महिमा और गरिमा का द्योतक है । इसी प्रकार महाकवि जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य 'कामायनी' का प्रारम्भ भी मंगलाचरण के बिना ही होता है । कवि अपनी कृति का प्रारम्भ यूँ करता है : "हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,/बैठ शिला की शीतल छाँह, एक पुरुष, भीगे नयनों से,/देख रहा था प्रलय प्रवाह ! नीचे जल था, ऊपर हिम था,/एक तरल था एक सघन; एक तत्त्व की ही प्रधानता-/कहो उसे जड़ या चेतन।"
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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