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'मूकमाटी': एक विमर्शात्मक अध्ययन
प्रो. हबीबुन्नीसा सौन्दर्य का संसार यदि तब उजड़ जाए जब उसकी सर्वाधिक आवश्यकता हो, प्यार का सागर यदि तब सूख जाए जब उसकी सबसे ज्यादा चाहत हो, जब जीवन की परिभाषा सुखद बनकर जीवन का अर्थ सार्थक कर सके, तभी वह एक दुःस्वप्न बनकर जीवन को निरर्थक बना दे तो मानव निराश हो जाता है । और वह अपने आप को वहाँ खड़ा हुआ पाता है, जहाँ पर दूर-दूर तक चटियल रेगिस्तान होता है । उस समय मानव को अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी की आवश्यकता पड़ती है तो उसके प्यासे मन को तृप्त करने के लिए कहीं न कहीं एक चशमा घनी छाँव और अमृत लिए उस निराश मानव को दृष्टिगोचर होता है।
इसी प्रकार जब मानवता ऊँचे आदर्शों से गिर कर प्यासी हो जाती है तो उसकी आत्मा शीतलता के लिए तरसती है। ऐसी स्थिति में सन्त, दार्शनिक अथवा एक विचारक इस धरती पर जन्म लेता है। उसकी वाणी अशान्त मानवता को शान्ति प्रदान करती है और उसके विचार दुखी मानव की प्यासी आत्मा को शीतलता प्रदान करते हैं। ऐसे ही एक सन्त, दार्शनिक, कवि तथा आचार्य का जन्म आज से ५८ साल पहले हुआ, वह हैं-आचार्य विद्यासागरजी मुनि महाराज।
'मूकमाटी' महाकाव्य के कवि आचार्य विद्यासागरजी का जन्म कर्नाटक राज्य के जिला बेलगाम के सदलगा ग्राम के निकटवर्ती ग्राम 'चिक्कोड़ी' में १० अक्टूबर, १९४६ में हुआ। आपका बाल्य काल का नाम 'विद्याधर' था । आपने कन्नड़ माध्यम से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की, प्रौढ़शाला तक आपकी पढ़ाई हुई। इस बीच में आपके अन्दर जो दार्शनिकता बसी थी वह जागृत हो गई। और उसके फलस्वरूप ३० जून, १९६८ को गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज से अजमेर (राजस्थान) में आपने मुनि दीक्षा प्राप्त की। उसके बाद आप जैन धर्म के प्रचार व प्रसार कार्य में निरन्तर लगे रहे तथा स्वाध्याय और चिन्तन-मनन में अपना समय लगाया । २२ नवम्बर, १९७२ को गुरुवर के करकमलों से ही नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान में आपको 'आचार्य' का पद मिला । इस समय तक आपकी कुछ रचनाएँ हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुकी थीं।
___ सम्प्रति, गद्य और पद्य दोनों में आपकी रचनाएँ उपलब्ध हैं। काव्य के क्षेत्र में नर्मदा का नरम कंकर', 'डूबो मत-लगाओ डुबकी, 'चेतना के गहराव में', 'तोता क्यों रोता' और इस लेख में चर्चित 'मूकमाटी' महाकाव्य । पद्य के क्षेत्र में आचार्य कुन्दकुन्द प्रभृति जैनाचार्यों की कृतियाँ – 'समयसार, 'नियमसार, 'प्रवचनसार' तथा 'समयसार कलश' आदि के साथ-साथ 'समणसुत्तं' जैसे २६ ग्रन्थों के पद्यानुवाद रूप रचनाएँ आपने की हैं। आपके प्रवचन संकलन 'गुरु वाणी, 'प्रवचनामृत, 'प्रवचन पारिजात' एवं 'प्रवचन प्रमेय' इत्यादि हैं । अब तो आपके द्वारा रचित वाङ्मय 'समग्र : आचार्य विद्यासागर' एवं 'महाकवि आचार्य विद्यासागर ग्रन्थावली' नाम से चार-चार खण्डों में उपलब्ध है।
हिन्दी साहित्य की सन्त-काव्य-परम्परा में आपको राष्ट्र-ख्याति प्राप्त है । आचार्यश्री नगर, ग्राम तथा तीर्थ क्षेत्रों का विहार करते हुए अपने अनोखे विचार और अमृतवाणी के द्वारा मानव-कल्याण में लगे हुए हैं। मानव धर्म तथा जैन धर्म की सेवा और निरन्तर आत्म-साधना में आपका जीवन बीत रहा है।
'मूकमाटी' दक्षिण से उत्तर को प्रदत्त एक अमूल्य देन है । दक्षिण भारत प्राचीन काल से ही उत्तर को ऋषि, सन्त और आचार्यों को देता आ रहा है । इस कड़ी के एक और बहुमूल्य मोती विद्यासागरजी हैं। 'मूकमाटी' अहिन्दी क्षेत्र से हिन्दी क्षेत्र को एक अनुपम भेट है।
किसी भी काव्य कृति को महाकाव्य कहने के पहले उसके लक्षण को देखना आवश्यक है। काव्य अथवा कविता को रचना के आधार पर तीन भागों में विभक्त किया जाता है :