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मूकमाटी-मीमांसा :: 389 'मूकमाटी' का छन्द-विधान मुक्त रूप में है। सम्पूर्ण महाकाव्य में सिर्फ मात्रिक छन्द रूप दोहा' (पृ. ३२५) तथा वसन्ततिलका' (पृ. १८५) हैं। मुक्त छन्द में विचरण करती हुई 'मूकमाटी' में कविनिर्मित छन्दों का प्रयोग हुआ है, जो नए, मनोहारी, युगानुकूल हो गए हैं। छन्द विधान में कवि की स्वतन्त्र दृष्टि ही काम करती दिखाई देती है, वरना आपके द्वारा रचित हिन्दी एवं संस्कृत में अन्य शतकों तथा पद्यानुवादित रचनाओं में भी अनेक छन्दों का कवि ने उपयोग किया है । 'मूकमाटी' में परम्परानुसार छन्दों का प्रयोग न होना किसी खास उद्देश्य की पूर्ति है, शायद 'मुक्त छन्द' में प्रथम महाकाव्य' । इसका कारण उनकी दृष्टि भी है, जिसका आशय उन्होंने स्पष्ट किया है :
“यहाँ/बन्धन रुचता किसे ?/मुझे भी प्रिय है स्वतन्त्रता।" (पृ. ४४२) कवि द्वारा जिन मुक्त छन्दों की रचना हुई है, उनमें से कुछ की मात्राएँ द्रष्टव्य हैं :
० “पक्षपात से दूरों की/यथाजात यतिशूरों की = २८
दया-धर्म के मूलों की/साम्य-भाव के पूरों की।" = २८ (पृ. ३१५) - "गगन का प्यार कभी/धरा से हो नहीं सकता = २५
मदन का प्यार कभी/जरा से हो नहीं सकता।" = २५ (पृ. ३५३) इसी तरह १७-१७, २३-२३, २६-२६, १९-१९, ३४-३४, ३१-३१, २८-२८, २५-२५ इत्यादि मात्राओं से युक्त छन्दों का भी निर्माण हुआ है।
निःसन्देह, 'मूकमाटी' अधिक परिमाण के साथ ही कथावस्तु की उच्चता, चरित्र सृष्टि की उदात्तता, नायक का विशिष्ट गुणों से भरपूर होना, महत् उद्देश्य की पूर्ति, विशिष्ट रचना शिल्प, वर्णन वैविध्य, रसात्मकता, पुरुषार्थता आदि लक्षणों से युक्त महाकाव्य की श्रेणी में युग-जीवन की जीवन्त तस्वीर प्रस्तुत करती है । समाजसापेक्ष महाकाव्य की तरह युगीन परिवेशों का विशद वर्णन यहाँ हुआ है, अत: 'मूकमाटी' महाकाव्य, महाकाव्य परम्परा में अमर कृति' के रूप में है । डॉ. नेमीचन्द जैन इस महाकाव्य को 'उपन्यासात्मक महाकाव्य' कहते हैं, जो सर्वथा उचित नहीं है, क्योंकि उपन्यास में सम्पूर्ण जीवन-चित्रण सम्भव नहीं है । डॉ. विजयेन्द्र स्नातक तथा सुकमाल जैन इस कृति में अध्यात्म प्रधानता ही देखते हैं। वे शायद जीवन-जगत् के अन्य व्यापारों को 'मूकमाटी' से उद्धृत नहीं कर पाए हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. देवव्रत जोशी का कथन किंचित् सत्य भी है कि इस महाकाव्य में सार्वभौम और सार्वजनिक सत्य का उद्घोष है । डॉ. के. एल. जैन का मत ही अधिक सटीक जान पड़ता है : “न तो इस महाकाव्य को हम केवल दर्शन की सीमाओं में बाँध सकते हैं और न ही इसे हम अध्यात्म की चादर ही ओढ़ा सकते हैं; कृति पर ना तो सांसारिकता का लेबिल ही लगा सकते हैं और न ही सामाजिक समस्याओं का दस्तावेज़ ही कह सकते हैं। सच्चे अर्थों में यह महाकाव्य जीवन के पुंजीभूत सत्यों की खुली किताब है, जिसमें हम इच्छानुसार अपने जीवन के स्वरूप को प्राप्त कर सकते हैं।"
निश्चित ही, यह महाकाव्य ग्रन्थ के 'प्रस्तवन' लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के अनुसार 'आधुनिक जीवन का अभिनव शास्त्र साहित्यकार मोहन शशि के शब्दों में 'अमर शिलालेख'; 'सन्मति वाणी' पत्रिका के अनुसार पतित से पावन बनने की यात्रा; तथा साहित्यालंकार आनन्दवल्लभ शर्मा की दृष्टि में 'मृत्तिकोपनिषद्' है। वास्तव में 'मूकमाटी' में महाकाव्यात्मक विस्तार है, साथ ही है आलोचना की दिशा, काव्य की प्रेरणा, व्यष्टि से समष्टि के साधन और हिन्दी जगत् के लिए प्रेरणायुक्त सृजन । 'मूकमाटी' के रचयिता, मुक्तिमार्ग के नेता आचार्य विद्यासागरजी को हमारा कोटिशः नमन।
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