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मूकमाटी-मीमांसा :: 387 'रसात्मकता' महाकाव्य ही महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । विद्यासागरजी ने यहाँ विविध रसों का मनोहारी वर्णन करते हुए रसराज 'शान्त रस' की प्रधानता को स्वीकारा है :
“सदय बनो !/अदय पर दया करो/अभय बनो ! सभय पर किया करो अभय की/अमृत-मय वृष्टि ।
सदा सदा सदाशय दृष्टि/रे जिया, समष्टि जिया करो!" (पृ. १४९) अपने भावों को व्यक्त करने के लिए आचार्यश्री ने जिस भाषा का प्रयोग किया है, वह विशुद्ध हिन्दी की खड़ी बोली है। उसमें कहीं भी दुरूहता या क्लिष्टता नहीं बल्कि सम्पूर्ण भाषा में प्रवहमानता, सहजता और सरलता है । भाषा कहीं छोटी, कहीं बराबर तो कहीं लम्बी शब्दावलियों से युक्त है । भावों को समझने के लिए कहीं भागना नहीं पड़ता, कवि की इस विशिष्ट भाषा की यही विशेषता है । भाषा कहीं सामासिक पदावलीयुक्त ओज एवं माधुर्यगुणयुक्त, गम्भीर योजनायुक्त है तो कहीं कम शब्दों में अधिक भावों की व्यंजना, नवनवोन्मेषशालिनी, मुक्त वेग से विहार करती हुई बालक हृदय के समान समाधि भाषा है :
- "माटी के प्राणों में जा,/पानी ने वहाँ/नव-प्राण पाया है,
ज्ञानी के पदों में जा/अज्ञानी ने जहाँ/नव-ज्ञान पाया है।" (पृ. ८९) आचार्यश्री के संयमित आचरण के समान ही आपकी भाषा भी समय, संयमित लय, यति-गति से पूर्ण है । यहाँ शब्द साधना के साँचे में ढले हैं जो शब्द से अर्थ, अर्थ को नव अर्थ देते हैं । भाषा में आशावादिता, चित्रोपमता, प्रतीकात्मकता और लाक्षणिकता पद-पद पर उभरी है । भाषा का आशावादी स्वरूप द्रष्टव्य है :
"हाँ, हाँ !!/विश्वास को अनुभूति मिलेगी
अवश्य मिलेगी/मगर/मार्ग में नहीं, मंज़िल पर !" (पृ. ४८८) शब्दों के रंगों की मुक्त बौछारें - फुहारें, अर्थ की छटा सहज ही हृदयस्थ हो जाती हैं। नाद सौन्दर्य और माधुर्य भरी शब्दरचना से युक्त भाषा का स्वरूप देखते ही बनता है :
“जहाँ कहीं भी देखा/महि में महिमा हिम की महकी, और आज!/घनी अलिगुण-हनी/शनि की खनी-सी..
भय-मद-अघ की जनी/दुगुणी हो आई रात है।" (पृ. ९१) वे शब्दों के शिल्पी हैं। उनकी भाषा में शब्द की व्युत्पत्ति, शब्द का अर्थ पाठक को बरबस ही रमाए रहता है,
यथा:
“ 'स्' यानी सम-शील संयम/'त्री' यानी तीन अर्थ हैं धर्म, अर्थ, काम-पुरुषार्थों में/पुरुष को कुशल-संयत बनाती है
सो "स्त्री' कहलाती है।” (पृ. २०५) भाषा में लोकोक्तियाँ, मुहावरे, सूक्तियाँ, जो भाषा की शृंगार तथा साहित्य की अनुपम निधि होती हैं, जिनसे भाषा में कसावट, भाव व्यक्त करने की सामर्थ्य बढ़ जाती है, उनके प्रयोग भी सहज उपलब्ध हैं । यथामुहावरे : "उर में उदारता उगना, दूध को छौंकना, बाल की खाल निकालना, मान यान के नीचे उतरना, नियति के रंजन में रमना" आदि । लोकोक्तियाँ : "बायें हिरण दायें जाय, लंका जीत राम घर आय, लक्ष्मण की भाँति उबलना"