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________________ 386 :: मूकमाटी-मीमांसा आदर्शों की स्थापना की गई है। इसमें सांस्कृतिक उच्चता को वंचित करने वाले तत्त्वों का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया गया है : " सुख-शान्ति से / दूर नहीं करना है इस युग को / और दु:ख-क्लान्ति से/चूर नहीं करना है।” (पृ. ११५) 'जियो और जीने दो, कर्म ही पूजा है, व्यक्ति जन्म से नहीं - कर्म से महान् बनता है' - जैसे सर्वोदयी विचारों को जीवन्तता प्रदान कर आचार्यश्री ने मानवता को प्रतिष्ठित किया है । सांस्कृतिक उन्नयन ही महाकाव्य की सार्थकता है । यहाँ जाति, समाज, राष्ट्र तथा विश्व में सांस्कृतिक उत्कर्ष की भावना को उत्पन्न कर एकत्व लाने का प्रयास किया गया है। इसमें बीजाक्षरों के माध्यम से भारतीय संस्कृति की महत्ता को पुनर्जीवित किया है : 66 'ही' पश्चिमी सभ्यता है / 'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता । 'ही' से हीन हो जगत् यह / अभी हो या कभी भी हो 'भी' से भेंट सभी की हो ।” (पृ. १७३) ... ‘सबसे सदा सहज बस मैत्री रहे मेरी, पापी से नहीं - पाप से घृणा करो, वासना का विकास मोह है- दया का विकास मोक्ष है' - आदि सूक्तियों को व्याख्यायित कर आचार्यश्री ने समता, प्रेम, अहिंसा, समाजवाद और सृजन महत्त्व आदि से समस्याओं का समाधान कर समाजसुधारक के रूप में स्पष्टत: चेतावनी दी है : के "जब तक जीवित है आतंकवाद शान्ति का श्वास ले नहीं सकती / धरती यह ।” (पृ. ४४१) धन लोलुपता ही मानव के विनाश का कारण है । इसी की पूर्ति में लगा मानव व्रत, नियम, सिद्धान्त, आदि को पीछे छोड़ता जा रहा है। धन-संग्रह की प्रवृत्ति ही दुःख और तनाव का कारण है। आचार्यश्री ने इसका समुचित वितरण करने के लिए आह्वान किया है, और मानव को प्रकृति में रमने का सन्देश भी दिया है । " पुरुष का प्रकृति में रमना ही / मोक्ष है, सार है ।” (पृ. ९३) इस तरह 'मूकमाटी' में उदात्त कथानक, विशाल चरित्रसृष्टि, महत् प्रेरणा है । इसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति की स्थापना है । इसके साथ ही विशिष्ट रचना - शिल्प का निर्माण महाकाव्यत्व को दर्शाता है । भाव पक्ष को कहने के लिए कवि ने जिस कला पक्ष का निर्वाह किया है, वह किसी बौद्धिक आयास का प्रतिफल नहीं अपितु सूक्ष्म और स्वतन्त्र दृष्टि में स्वतः ही निरूपित हुआ है। 'वर्णन वैविध्य' महाकाव्य की अप्रतिम विशेषता है। उसके द्वारा ही जीवन की, जीवन के अनेक रूपों की व्यंजना की जा सकती है। 'मूकमाटी' में बड़े ही कलात्मक सौन्दर्य के साथ इन भावों का अभिव्यक्तीकरण प्रकृति के माध्यम से, कहीं मानवीकरण रूप में, कहीं आलम्बन रूप में, कहीं उपदेश रूप में और कहीं सन्देश रूप में तथा कहीं संवेदनात्मक रूप में कुशलतापूर्वक किया गया है । सन्देश रूप को व्यक्त करती हुई प्रकृति सुन्दरी का अनुपम चित्रण किया है, जो द्रष्टव्य है : “पराग-प्यासा भ्रमर-दल वह / कोंपल फूल - फलों दलों का सौरभ रस पीता है/ पर उन्हें, / पीड़ा कभी न पहुँचाता ।” (पृ. ३३३)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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