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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 385 है। माटी से कुम्भ निर्माण प्रक्रिया में माटी को उपसर्ग सहने पड़ते हैं। वह निरन्तर संघर्ष कर अपने मूल रूप (मंज़िल) को प्राप्त होती है । कथानायक की यहीं सार्थकता सिद्ध होती है । बीच-बीच में अनेक पात्रों के संवाद मानव को त्याग, सेवा, समता, अहिंसा, सत्य, शील, परिश्रम, प्रेम आदि रूप अनेक संस्कार-शिक्षाएँ देते हैं तो यहीं पर पर्यावरणवाद, नारीवाद, अध्यात्मवाद की अनेक उलझी समस्याएँ सुलझी हुई युगीन परिवेश में प्रस्तुत हुई हैं। कथा कहते-कहते जीवन के अनेक रूपों को रूपायित किया है कवि ने । समाजवाद के वास्तविक रूप की व्याख्या, धर्म की महत्ता, आतंकवाद की समस्या, राजनीति, अर्थनीति के वास्तविक तथ्यों का इतना सुन्दर वर्णन किया है कि 'मूकमाटी' को आद्यन्त बार-बार पढ़ने मन हो उठता है । यही कविता की सार्थकता भी है । धारा की गति की दिशा में चलना जितना सरल है, उसके विपरीत चलना उतना ही कठिन भी। 'मूकमाटी' में ऐसे ही विरोधी प्रश्नों का समाधान है जो हमें दर्पण की भाँति सुखमय वर्तमान और भविष्य की झलक देते हैं। उपभोक्ता संस्कृति के विकास में मानव-मूल्यों का जो ह्रास हुआ है उससे मानव-चेतना स्वार्थी और संकुचित घेरों में घिरकर व्यक्तिवादी तथा अवसरवादी हो जाने से कुण्ठित हो गई है। अर्थलोलुपता में भावनाएँ कुत्सित हो गई हैं, फलस्वरूप सामाजिक विद्रूपताएँ, धार्मिक मदान्धताएँ, आर्थिक असमानताएँ, राजनैतिक विषमताएँ, पारिवारिक विशृंखलताएँ आदि अनेक अराजकताएँ सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ी होती जा रही हैं। आचार्यश्री ने इन्हीं समस्याओं के समाधान में अपनी पहचान बनाई है। 'मूकमाटी'कार ने महाकवि दिनकर के शब्दों को – “जो महाकवि युग की अनेक वेगवन्त धाराओं के लिए सागर का निर्माण करे, उसी का महाकाव्य लिखने का प्रयास सफल रहता है" - पूर्णतया समाहित कर लिया है। आचार्यश्री ने भोगवादी संस्कृति - प्रवृत्ति में मानव और प्रकृति दोनों का ही वर्तमान एवं भविष्य विकृत देखा है। तभी आपने योगवादी संस्कृति (भारतीय संस्कृति) का यशोगान गाया है, जो महामानव की पूर्ण कल्पना की अन्तिम दशा भी है। ___ प्रत्येक प्राणी का अन्तिम ध्येय सुख की प्राप्ति है । वह दुःख से छुटकारा चाहता है, लेकिन उसे मोह, माया, मान, लोभ, क्रोध, काम आदि वृत्तियाँ सुख की ओर अग्रसर नहीं होने देतीं । इन्हीं वृत्तियों के त्यागने तथा तप, त्याग और साधना आदि के द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। विद्यासागरजी ने इन्हीं सन्देशों का शंखनाद किया है । ऐसे ही सन्देश वैर, परतन्त्रता, पूँजीवाद, अकर्मण्यता आदि को समूल नष्ट कर सकते हैं : ___ "पर को परख रहे हो/अपने को तो परखो ''जरा ! परीक्षा लो अपनी अब!" (पृ. ३०३) तीर मिलता नहीं तैरे, आग की नदी पार करनी होगी, संयम की राह चलना होगी, दया का विकास करना होगा, प्रकृति में रमना होगा, तभी ‘वर्ण-लाभ, पुण्य का पालन, शोध का बोध, चाँदी-सी राख' प्राप्त की जा सकती है। इन्हीं मूल्यों की उद्भावना करते हुए कवि ने सर्वत्र फैली कलह, अशान्ति, अराजकता को नष्ट करने के लिए विश्वभावना भायी है: 0 "दिवि में, भू में/भूगर्भो में/जिया-धर्म की दया-धर्म की/प्रभावना हो.!" (पृ. ७७-७८) 0 “मैं सबके रोगों का हन्ता बनें /'बस,/और कुछ वांछा नहीं।" (पृ. ४०) 0 “जीवन का मुण्डन न हो/सुख-शान्ति का मण्डन हो ।” (पृ. २१४) इन्हीं उद्देश्यों की महत् प्रेरणा का प्रतिफलन है 'मूकमाटी' । इसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थो का वर्णन,
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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