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384 :: मूकमाटी-मीमांसा
स्त्री-चेतना के स्वर भी आपके काव्य में देखे जा सकते हैं :
"जो/'मह' यानी मंगलमय माहौल,/महोत्सव जीवन में लाती है
'महिला' कहलाती वह।" (पृ. २०२) आचार्य विद्यासागरजी महाराज का 'मूकमाटी' काव्य राष्ट्रीय चेतना से सम्पृक्त काव्य है । इसमें भारत की प्राचीन मूल्य-सम्पदा, स्वच्छ राजनीति, मानव-कल्याण, धर्म, आदर्श, समाजवाद व्यवस्था और सांस्कृतिक धरोहर की अमिट चित्र-छवियाँ अंकित हैं। संस्कृत में छह शतकम्, राष्ट्रभाषा में सात शतक संग्रह, पाँच काव्य संग्रह और एक कालजयी 'मूकमाटी' महाकाव्य, लगभग पच्चीस-तीस ग्रन्थों के पद्यानुवाद-काव्यानुवाद संग्रह तथा अनेक प्रवचन संग्रह, स्फुटगीत, कविताओं के सर्जक मुनि विद्यासागरजी दिगम्बर जैन सन्त हैं । आपने अपने काव्य के माध्यम से राष्ट्रीय एकता के खतरों को सावधानीपूर्वक समाज, राष्ट्र के समक्ष रखा है। धर्म के वितण्डावाद, विडम्बनाओं से राष्ट्रीय एकता खण्डित होती है। वर्गवादी संस्कृति से भी देश की अस्मिता को खतरा है। स्वार्थपूर्ण नीतियाँ, संकीर्ण सोच और राजनीतिक तुष्टीकरण की भावना भी राष्ट्रीयता को चोट पहुँचाती है । इसीलिए आप ने लिखा है कि एकता के लिए जरूरत है कि हम पहिले मनुष्य बनें और मानवता का विकास करें। शिक्षा नीति में सद्गुणों और श्रम निष्ठा वाले पाठ्यक्रम रखे जाएँ । लोकतन्त्र की नीति देश के प्रति बहुमान, गौरव एवं अपनत्व की भावनाओं के द्वारा ही सुरक्षित रहेगी। 'मूकमाटी' - एक मूल्यांकन
मानव-मूल्यों की महिमा से मण्डित, महाकाव्यों की परम्परा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में 'मूकमाटी' का सृजन सन्त-कवि आचार्य विद्यासागरजी की जीवन्त आस्था और साधना का प्रतीक है।
___माटी को आधार बनाकर आचार्यश्री ने अपनी साधना से प्रसूत भावों को कल्पना के रंग में रंगकर, युगीन प्रसंगों को प्रस्तुत कर युग-चित्रण की झाँकी को चित्रित किया है जो मानवतावादी जीवन-दृष्टि से प्रेरित होकर भारतीय संस्कृति और जीवन चेतना के स्वरों को उद्घोषित करती है । 'महाकाव्य' राष्ट्रीयता, भक्ति, मानवीय संवेदना के भावों, मानव की परिपूर्णता हेतु आधार, पवित्र, शाश्वत संस्कृति के मूल्यों से परिपूरित रचना होती है । इन दृष्टियों का प्रतिपादन हम 'मूकमाटी' में देखते हैं। कहना चाहिए समग्रता से साक्षात्कार का बोलबाला 'मूकमाटी' में है। विज्ञान की प्रगति ने मानव को अधिकाधिक सुविधाएँ देने का प्रयास किया, लेकिन उसके दुरुपयोग में जिस जहर का निर्माण हुआ, उससे जीवन के हर क्षेत्र में अनेक दुष्प्रवृत्तियाँ प्रवेश कर गईं और सुख की जगह तनाव, शान्ति की जगह क्लान्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई, फलस्वरूप सिर्फ वेदना की अनुभूति के सिवाय कुछ और नहीं रहा । साहित्य ऐसी ही समस्याओं के प्रति सजग और समाधान के लिए सतत प्रयासरत रहा है । आचार्यश्री का यह सृजन भी उसी खोज का प्रयोग है । युगीन प्रसंगों को महाकाव्यात्मक आधार देकर उन्होंने जिस रचना फलक का निर्माण किया है, उसमें उनकी अन्तर्दृष्टि सदैव सत्य को ही पकड़े रही है। असत्य, अनास्था, हिंसा, व्यभिचार, परिग्रह, अनीति आदि से उत्पन्न दुःख
और तनावग्रस्त यथार्थ का चित्रण करके उन्होंने आस्था, विश्वास, श्रद्धा, साधना, अनुशासन, प्रेम, समता, शील आदि का आदर्श चित्र हमारे सामने रखकर आत्मिक सुख-शान्ति देने का प्रयास किया है।
बेचैन माटी अपने पतित-दलित रूप से ऊपर उठ सार्थक जीवन में ढलना चाहती है । माँ धरती उसे श्रद्धा, आस्था, अनुशासन, समर्पण, साधना की शिक्षा देती है । कथानायक कुम्भकार संकर दोष वारण कर वर्णलाभ देता