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मूकमाटी-मीमांसा :: 383 भाषा की आवश्यकता होती है जो भावात्मक रूप से सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधती है। मातृभाषा के जरिए ही हम मधुर, सरल और सुष्ठु वातावरण तैयार कर सकते हैं।
कर्म-आधारित समाज : बेकारी की समस्या के कारण ही राष्ट्र अपने मूल पथ से भटक रहा है। इसका प्रमुख कारण उदरपूर्ति के लिए हित-साधन बनी शिक्षा-व्यवस्था, जो सिर्फ डिग्रियाँ देकर लोगों में बेरोजगारी पैदा कर रही है
और कुछ लोग तो बिना मेहनत किए ही आराम से रहना चाह रहे हैं। यही वजह है कि हम स्वयं दिन-प्रतिदिन कमज़ोर होकर राष्ट्र को कमज़ोर कर रहे हैं। इसीलिए उन्होंने कर्म आधारित संस्कृति का स्तुतिगान किया है :
“परिश्रम करो/पसीना बहाओ/बाहुबल मिला है तुम्हें।" (पृ. २११-२१२) आज देश में अलगाववाद, बेरोजगारी, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता जैसी घातक समस्याएँ बनी हुई हैं। यदि समय रहते इनके निराकरण की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो ये विषवेल की तरह ऐसी फैल जाएँगी कि सारा वातावरण ही विषाक्त हो जाएगा। आचार्यश्री कहते हैं जब तक आतंकवाद जीवित है, शान्ति का श्वास लेना कठिन है' (पृ.४४१)। इसीलिए इसके मुकाबले के लिए वे जन-समर्थन के साथ ही बुद्धिजीवियों का आह्वान करते हैं :
"ये आँखें अब/आतंकवाद को देख नहीं सकतीं,/ये कान अब आतंक का नाम सुन नहीं सकते,/यह जीवन भी कृत-संकल्पित है कि
उसका रहे या इसका/यहाँ अस्तित्व एक का रहेगा।” (पृ. ४४०) अन्धविश्वासों-रूढ़ियों-कुरीतियों का विरोध : देश के विकास में कुरीतियाँ और रूढ़ियाँ बाधक तत्त्व हैं । आचार्यश्री ने नारी-चेतना के स्वरों को गति देते हुए दहेज जैसी कुरीति को अभिशप्त माना है।
"...खेद है कि/लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी
प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।" (पृ.३८६) इसके साथ ही रूढ़ियाँ भी हमें विनाश की ओर ले जाती हैं । पाप करके पुण्य की बात करना कहाँ की बुद्धिमानी है? वस्तुत: यह तो विनाश की राह है।
____ इस प्रकार आचार्यश्री विद्यासागर के काव्य में हमें राष्ट्रीय एकता के स्वर सुनाई पड़ते हैं। मानवता की रक्षार्थ और राष्ट्रीय एकता तथा धरती, संस्कृति (भारतीय संस्कृति) के गुणगान में उनकी देशभक्ति की भावना प्रबल दिखाई पड़ती है । आपका समूचा साहित्य ही राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है । वे कहते हैं कि कला मात्र से जीवन में सुखशान्ति-सम्पन्नता आती है ' (पृ.३९६) । और 'साहित्य वह है जिससे सुख का समुद्भव-सम्पादन हो, सही साहित्य वही हैं' (पृ.१११) । आपके काव्य में मातृभावना तथा जीव-कल्याण भावना की दृष्टि भी विद्यमान है :
“यहाँ "सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव,
सबके सब टलें-/अमंगल-भाव ।" (पृ. ४७८) आपका काव्य क्षमा और प्रेम का काव्य है :
"क्षमा करता हूँ सबको,/क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी !" (पृ. १०५)