SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पात्र भी अपात्र की कोटि में आता है ।" (पृ. ३८२) इन्हीं कारणों से सामाजिक असन्तोष भड़कता है, गरीब आदमी को न्याय विलम्ब से मिलता है जो अन्याय के बराबर ही है : मूकमाटी-मीमांसा :: 381 0 यहाँ अपराधी बच निकलते हैं, निरपराधी पिट जाते हैं (पृ. २७१) । इस कारण भी राष्ट्रीय एकता खतरे में है । स्वयं राजनीतिज्ञ, सत्ताधीश अपने लिए सुख-सुविधा जुटाकर समाज / जनता को पीछे रखते हैं (पृ. ४६० - ४६१) । स्वयं वेतन-भोगी हैं (पृ. १२३) फिर राष्ट्रीयता का स्वरूप कैसे रहेगा ? वस्तुतः लोकतन्त्र में समाजवाद का अर्थ 'प्रचारप्रसार से दूर, प्रशस्त आचार-विचार वालों का जीवन ही समाजवाद है' (पृ. ४६१) । अत: राजनीतिक सत्ताधारियों को चाहिए कि वे 'शूलशीला जीवन को वरण करें और पद- लिप्सा की भावना से दूर रहें। O " आशातीत विलम्ब के कारण / अन्याय न्याय - सा नहीं न्याय अन्याय-सा लगता ही है। / और यही हुआ इस युग में इस के साथ ।” (पृ. २७२ ) " शास्ता की शासन - शय्या फूलवती नहीं / शूल शीला हो, / अन्यथा, राजसत्ता वह राजसता की / रानी - राजधानी बनेगी ।" (पृ. १०४ ) " पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु / पर को पद - दलित करते हैं, पाप-पाखण्ड करते हैं। / प्रभु से प्रार्थना है कि / अपद ही बने रहें हम ! जितने भी पद हैं / वह विपदाओं के आस्पद हैं।" (पृ. ४३४) राजनीतिज्ञों को चाहिए कि वे दलित वर्ग, अल्पसंख्यकों को सात्त्विक संस्कारों से ओतप्रोत कर राष्ट्रीय में लाने के लिए सहानुभूति रखें : मुख्यधारा ... जो / पद - दलित हुए हैं / किसी भाँति, / उर से सरकते - सरकते उन तक पहुँच कर / उन्हें उर से चिपकाया है, / प्रेम से उन्हें पुचकारा है, उनके घावों को सहलाया है ।" (पृ. ४३३) लोकतन्त्र में आस्था : लोकतन्त्र की स्थापना से ही सामाजिक न्याय और समानता की बात फलीभूत होती है । स्वतन्त्रता और विकास के बीज लोकतन्त्रीय व्यवस्था में ही निहित होते हैं। शोषण और अनाचार से मुक्ति भी इसी प्रणाली में मिलती है । आचार्य विद्यासागर लोकतन्त्र में आस्था रखते हुए 'भी' संस्कृति का गुणगान करते हैं : “लोक में लोकतन्त्र का नीड़ / तब तक सुरक्षित रहेगा जब तक 'भी' श्वास लेता रहेगा । / 'भी' से स्वच्छन्दता - मदान्धता मिटती है स्वतन्त्रता के स्वप्न साकार होते हैं, / सद्विचार सदाचार के बीज 'भी' में हैं, 'ही' में नहीं ।" (पृ. १७३ ) जातिगत अन्तर्विरोधों का अन्त : राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक तत्त्व जातिगत भेदभाव की स्थापना भी है। सभी मानवों में एक ही आत्मा का वास है, एक ही जैसा खून है फिर जातिगत भेदभाव क्यों ? आचार्य विद्यासागरजी
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy