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लोक-मंगल की समाधि अवस्था : 'मूकमाटी'
डॉ. सुरेश गौतम आचार्य विद्यासागर रचित 'मूकमाटी' एक विचार महाकाव्य है । आचार्यश्री का आध्यात्मिक चिन्तन माटी की मूकता में मुखर हुआ है । सृष्टि के मूल में माटी ही है । माटी का व्यक्तित्व विराट् एवं व्यापक है । माटी में ही सहनशीलता है, सज्जनता है और सृजन की क्षमता है। 'मूकमाटी' के महाकाव्यात्मक व्यक्तित्व के इस मूकत्व को पहचानना अपने आप में एक तपस्या-साधना है। मुनिश्री का वैराग्यमुखी मन-जीवन के विविध गम्भीर अनुभूति-क्षणों के बीच से गुज़रता हुआ अध्यात्म की सर्वोन्मुखी 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' के स्वरों को अभिव्यक्त करता है।
___ 'प्रस्तवन' में ठीक कहा गया है : “माटी की तुच्छता में चरम भव्यता के दर्शन करके उसकी विशुद्धता के उपक्रम को मुक्ति की मंगल-यात्रा के रूपक में ढालना कविता को अध्यात्म के साथ अ-भेद की स्थिति में पहुँचाना है।" इसमें सन्देह नहीं कि “आचार्यश्री विद्यासागर की कृति 'मूकमाटी' मात्र कवि-कर्म नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है-सन्त जो साधना के जीवन्त प्रतिरूप हैं और साधना जो आत्म-विशुद्धि की मंज़िलों पर सावधानी से पग धरती हुई, लोकमंगल को साधती है। यह सन्त तपस्या से अर्जित जीवन-दर्शन को अनुभूति में रचापचाकर सबके हृदय में गुंजरित कर देना चाहते हैं। निर्मल-वाणी और सार्थक सम्प्रेषण का जो योग इनके प्रवचनों में प्रस्फुटित होता है-उसमें मुक्त छन्द का प्रवाह और काव्यानुभूति की अन्तरंग लय समन्वित करके आचार्यश्री ने इसे काव्य का रूप दिया है।"
मानस-तरंग' इस विचार महाकाव्य का आकाश-दीप है। यह आध्यात्मिक काव्य अस्ति और नास्ति के सिद्धान्त की सरल व्याख्या करता है । इस महाकाव्य के सृजन के मूल में सृष्टि का कार्य-कारण भाव आलोकित है। मुनिश्री का दार्शनिक चिन्तन आज के वर्तमान जीवन की पीड़ाओं, कुण्ठाओं और यातनाओं के अनुभूति-क्षणों को साथ लेकर चलता है । मानव-जीवन के वर्तमान स्वरूप को देखकर ही मुनिश्री ने उसकी मुक्ति के लिए यह आध्यात्मिक काव्य रचा । ईश्वर है या नहीं-आदिकालीन शंका है। इसके साथ ही मुनिश्री ने जैन दर्शन को नास्तिक कहने वालों के अनेक तर्क सप्रमाण काट दिए हैं । मुनिश्री का प्रगतिशील चिन्तन जब उभरता है तो वह इस निर्णय पर पहुँचता है : "ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है, इस मान्यता को छोड़ना ही आस्तिकता है।" आस्तिकता की यह परिभाषा अत्यन्त कठिन है । इसके लिए तपस्वी तन और मनस्वी मन चाहिए। इसका सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर शृंगार रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है जिसमें लौकिक अलंकार अलौकिक अलंकारों से अलंकृत हुए हैं और मानव को भोग से योग की ओर उन्मुख करना इस सृजन का उद्देश्य है।
- इस महाकाव्य का प्रारम्भ सूर्योदय के सुन्दर चित्रण से हुआ है। यह प्रकृति के माध्यम से मानवीय प्रकृति को रेखांकित करने की कुशल कला ही है :
“लो !"इधर'!/अध-खुली कमलिनी/डूबते चाँद की चाँदनी को भी नहीं देखती/आँखें खोल कर। ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना/सबके वश की बात नहीं,
और "/वह भी"/स्त्री-पर्याय में-/अनहोनी-सी"घटना !" (पृ. २) प्रारम्भ की इन पंक्तियों ने ही आज के विषम जीवन की झाँकी प्रस्तुत कर दी है। ईर्ष्या आज के समाज को खोखला कर रही है। यहाँ की अंग्रेज़ियत देखकर अंग्रेज़ भी शरमाते हैं। भारत का उद्धार इस प्रवृत्ति से नहीं हो सकता। मुनिश्री की दृष्टि ने वर्तमान स्वरूप को बहुत भीतर से पहचान लिया है। इसीलिए मिट्टी से कहलाया :
"असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा !" (पृ. ९)