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मूकमाटी-मीमांसा :: 377
पहला खण्ड ‘संकर नहीं : वर्ण-लाभ' शीर्षक से है। माटी माँ के प्रति यह कथन सृष्टि के एक प्रकृत सत्य को उजागर करता है :
“प्रकृति और पुरुष के / सम्मिलन से / विकृति और कलुष के / संकुलन से भीतर ही भीतर / सूक्ष्म-तम / तीसरी वस्तु की / जो रचना होती है ।” (पृ. १५)
मुनिश्री का चिन्तन जीवन के व्यापक स्वरूप को आलोकित करता है । इस आलोक में ही गाँठ खुलती है। गाँठ को खोलना आसान नहीं है । गाँठ ही रहस्य है। इस रहस्य के लिए रस्सी और रसना का रूपक अत्यन्त रोचक है। रहस्य की उत्कण्ठा और वर्तमान का चित्र, इन दोनों का समन्वय ही रचना को श्रेष्ठ बनाता है। तब आज से साक्षात्कार हो जाता है :
“कहाँ तक कहें अब !/ धर्म का झण्डा भी / डण्डा बन जाता है शास्त्र शस्त्र बन जाता है / अवसर पाकर ।” (पृ. ७३)
पहले खण्ड में माटी और मछली का संवाद कवि के विचारों को प्रकट करता है। इस विस्तृत संवाद की प्रस्तुत पंक्तियाँ सार प्रकट करती हैं:
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" अपने जीवन-काल में / छली मछलियों से / छली नहीं बनना विषयों की लहरों में / भूल कर भी / मत चली बनना ।” (पृ. ८७)
माटी का यह वाक्य मछली के लिए सन्देश है। इस खण्ड की एक पंक्ति की ओर ध्यान चाहता हूँ जहाँ मुनिश्रेष्ठ सत्युग और कलियुग का अन्तर स्पष्ट किया है :
"सुनो बेटा ! / यही / कलियुग की सही पहचान है
जिसे / खरा भी अखरा है सदा / और / सत् - युग तू उसे मान बुरा भी / 'बूरा-सा लगा है सदा ।” (पृ. ८२-८३)
भाषा का अलंकृत रूप भाव को प्रभाव दे गया है। ऐसी सूक्तियाँ इस महाकाव्य की अनन्त निधियाँ हैं । के आदमी की तस्वीर है इस पहचान में ।
अशिक्षा या आध्यात्मिक रुचि के प्रभाव में आज यह महाकाव्य जितने मनों में इस पहचान की शक्ति दे जाय, उतना ही पुण्य है। शिल्पी ने मछली को यथास्थान भेजकर जीवन के एक पक्ष पर पर्दा गिरा दिया है। दूसरा खण्ड 'शब्द और बोध' का अविच्छिन्न और अनविच्छिन्न बोध ही वाक् और अर्थ का समन्वय है । इसमें पौर्वात्य और पाश्चात्य सभ्यता का स्पष्ट स्वरूप है। इस कवि-मनीषी ने मनुष्य को समग्र दृष्टि से देखा है। पूँजीपति, राजनीति, साहित्य आदि सभी पर विचार किया है। माटी के इस गम्भीर चिन्तन में एक दिग्वस्त्री सन्तकवि के एकान्त क्षणों में पवित्र जीवन दृष्टि आलोकित हो उठी है। माटी के माध्यम से इतना बड़ा महाकाव्य इस जीवन की महानता को प्रकट करता है जो उसे इस रूप में जी सकता है वह जीवन कितना आदर्श होगा, यह शब्दातीत है। शैली में कोई प्रतिबन्ध नहीं है । स्वतन्त्र अभिव्यक्ति साधना की तपन से और चमक उठी है। महाकाव्य की भाषा साहित्यिक और प्रकाशन सुन्दर है । मानवमुक्ति के इस भोजपत्र ‘मूकमाटी' में लोक मंगल की समाधि अवस्था की ब्रह्म अनुभूतियाँ हैं जो मुनिश्रेष्ठ के अनुसन्धानचिन्तन का अक्षत-अक्षर रूप हैं। अक्षर - देह में गूँजती 'मूकमाटी' पारदर्शी आत्मा का साक्षात्कार है, जिसे मुनिश्री ने लोक और परलोक के बीच सेतु बना दिया है। हम इस कस्तूरी गन्ध से साक्षात्कृत होकर मुक्ति-पर्व मनाएँ यही इस ग्रन्थ का महाकाव्यात्मक उद्देश्य-बोध है। 'पुण्यों का पालन' और 'पापों का प्रक्षालन' इसी का दूसरा पक्ष है, अतः चिन्तक आचार्यश्रेष्ठ श्री विद्यासागरजी ने बिल्कुल ठीक कहा है 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं ।'