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374 :: मूकमाटी-मीमांसा
यमक : ० "करण-गण का पर पर नहीं,/तन पर/नियन्त्रण-शासन हो सदा।" (पृ.१२५) उदाहरण : ० "बबूल के ढूँठ की भाँति/मान का मूल कड़ा होता है।" (पृ.१३१) लाटानुप्रास : ० "किसलय ये किसलिए/किस लय में गीत गाते हैं।" (पृ.१४१)
. “यही मेरी कामना है/कि/आगामी छोरहीन काल में
बस इस घट में/काम ना रहे !" (पृ. ७७) ० "मन के गुलाम मानव की/जो कामवृत्ति है/तामसता काय-रता है
वही सही मायने में/भीतरी कायरता है !" (पृ. ९४) अलंकारों की अद्भुत छटा सम्पूर्ण काव्य को अनोखा सौन्दर्य प्रदान करती है। कवि ने भाषा की अर्थ-व्यंजना में मुहावरों, लोकोक्तियों और कहावतों का पर्याप्त सहयोग लिया है। महावरे : ० "पूत का लक्षण पालने में" (पृ. १४ एवं४८२);
० "सर के बल पर चलना" (पृ.१५१); ० "दाल न गलना” (पृ. १३४);
0 "नाक में दम करना" (पृ. १३५) । कहावत : ० "छोटी को बड़ी मछली/साबुत निगलती है यहाँ ।" (पृ. ७१)
. "मुँह में राम/बगल में छुरी।" (पृ. ७२) लोकोक्ति : “आधा भोजन कीजिए/दुगुणा पानी पीव ।
तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी/वर्ष सवा सौ जीव !" (पृ. १३३) कवि ने शब्दों के नवीन प्रयोग के मोह में भाषा को जटिल बना दिया है, जैसे- अर्चा, भास्वत, चार्मिक, स्पर्शन, शास्ता (पथ बताने वाला), अपाय (पीड़ा) आदि । कहीं पर शब्दों के विलोम क्रम से नवीन अर्थ प्रस्तुत कर चमत्कृत किया है :
धरणी >नीरधः . ""रणी /नी "र"ध/नीर को धारण करे 'सो'"धरणी।" (पृ.४५३) राही>हीरा : “राही बनना ही तो/हीरा बनना है ।" (पृ. ५७) राख>खराः “राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?" (पृ. ५७)
कुछ शब्दों की नई व्याख्या की है : संसार : 0 "सृ-धातु गति के अर्थ में आती है,/सं यानी समीचीन/सार यानी सरकना"
जो सम्यक् सरकता है/वह संसार कहलाता है।/काल स्वयं चक्र नहीं है संसार-चक्र का चालक होता है वह।” (पृ. १६१) " "मैं दो गला"/...मैं द्विभाषी हूँ/...'मैं" यानी अहं को दो गला-कर दो समाप्त ।" (पृ. १७५)