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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 371 "...खेद है कि/लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।” (पृ.३८६) मनुष्य के विघटित मूल्यों की प्रतिछवि का रूप ये पंक्तियाँ हैं : "ये अपने को बताते/मनु की सन्तान !/महामना मानव ! देने का नाम सुनते ही/इनके उदार हाथों में पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं।” (पृ. ३८७) कवि ने बार-बार इस बात को स्पष्ट करना चाहा है कि अहं के विसर्जन के बिना आत्म-शुद्धि सम्भव ही नहीं है। चेतन तत्त्व चिन्तन के मार्ग पर चलकर ही परमतत्त्व-सम बनने रूप लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । वास्तव में दर्शन शास्त्र के शुष्क सिद्धान्तों को काव्य के भावनाप्रधान कलेवर में समाहित करके मानव मात्र के लिए सम्प्रेषणीय बनाने का प्रयास ही 'मूकमाटी' का उद्देश्य रहा है। सांसारिक मनुष्य तथा संकल्पप्रज्ञ जीव द्वारा भवसागर से उबरने की स्थिति की सुन्दर व्यंजना की है : "तैरने वाला तैरता है सरवर में/भीतरी नहीं,/बाहरी दृश्य दिखते हैं उसे । वहीं पर दूसरा डुबकी लगाता है,/सरवर का भीतरी भाग भासित होता है उसे,/बहिर्जगत् का सम्बन्ध टूट जाता है।" (पृ. २८९) इसमें दर्शन और अध्यात्म की गहरी डूब तथा ऊपर-ऊपर तैरने के अन्तर की सूक्ष्म व्यंजना है : "इस युग के/दो मानव/अपने आप को/खोना चाहते हैंएक/भोग-राग को/मद्य-पान को/चुनता है; और एक/योग-त्याग को/आत्म-ध्यान को/धुनता है । कुछ ही क्षणों में/दोनों होते/विकल्पों से मुक्त ।/फिर क्या कहना ! एक शव के समान/निरा पड़ा है,/और एक शिव के समान/खरा उतरा है।” (पृ. २८६) संसार में लिप्त और संसार से विरक्त, परिशुद्ध आत्मा के इन्हीं स्वरूपों की विशद व्याख्या करना कवि का ध्येय रहा है। ___सशक्त भावों और उदात्त विचारों के द्वारा शाश्वत सत्य का प्रतिपादन कविश्री ने उतनी ही सुन्दर, प्रांजल एवं परिष्कृत भाषा में किया है । भावों की रससिद्ध परिणति के साथ इस काव्य में कलागत सौन्दर्य का मणिकांचन संयोग हुआ है । जैन धर्म की श्रमण संस्कृति के अनुरूप इस काव्य की भाषा में साहित्यिक हिन्दी का तत्सम प्रधान संस्कृतनिष्ठ और परिष्कृत रूप मिलता है । संस्कृत के तत्सम रूपों की बहुलता के कारण जहाँ भाषा के स्तर में प्रौढ़ता परिलक्षित होती है वहीं बोधगम्यता की दृष्टि से कहीं-कहीं उसका स्वरूप जटिल व क्लिष्ट भी हो गया है जिससे गम्भीर विचारों की दार्शनिक व्याख्या और बोधगम्यता में पाठकों को असुविधा का अनुभव होता है, फिर भी कवि की लेखनी से निःसृत प्रत्येक शब्द प्रबन्धसूत्रता में बँध कर महत्त्वपूर्ण हो गया है । शब्दों के प्रचलित अर्थ के उपयोग के साथ शब्द की रचनात्मकता को व्याकरण की सान पर चढ़ाकर उसकी सूक्ष्म परतों को उघाड़ा है और जिन मौलिक अर्थों की गवेषणा
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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