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________________ 370 :: मूकमाटी-मीमांसा चित्रण किया है । कुम्भकार के प्रांगण में मेघ मुक्ता के बरसने का समाचार सुन कर राजा के कर्मचारियों द्वारा मुक्ताराशि को बोरियों में भरने का उपक्रम होते ही, आकाश की गुरु गम्भीर गर्जना, अनर्थ और पाप के उद्घोष के साथ राजा सहित सभी का मन्त्राभिशप्त अवस्था में महसूस करना, अन्त में सारा धन राजा को ही समर्पित कर दिए जाने के पीछे मानव-मन की निर्विकार दशा का ही चित्रण किया गया है। चतुर्थ खण्ड - 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में कुम्भ का अवे में तप कर पक्व स्थिति प्राप्त करना वास्तव में जीवात्मा का शुद्ध निर्मल स्वरूप पाना है जो राग-द्वेष से सर्वथा मुक्त हो कर परहित में तत्पर रहे तथा आत्म-साधना की ऊँचाइयों को भी स्पर्श करे । "स्व - पर दोषों को जलाना / परम-धर्म माना है सन्तों ने ।” (पृ. २७७) इसी खण्ड में साधु को आहार दान की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन करके एक नगर सेठ के हृदय परिवर्तन की स्थिति दिखाकर जीवन के गन्तव्य को लक्षित करने का सार्थक प्रयास किया गया है। " सन्त समागम की यही तो सार्थकता है / संसार का अन्त दिखने लगता है, ... सही दिशा का प्रसाद ही / सही दशा का प्रासाद है ।" (पृ. ३५२) मन की शुद्ध दशा में ही अविनश्वर सुख की अनुभूति होती है। इस सत्य को उद्घाटित करके मुनिश्री ने मानवजीवन की मंज़िल का स्पष्ट संकेत किया है। काव्य के अनेकानेक मार्मिक प्रसंगों के चित्रण और परिवेश-वर्णन के द्वारा जीवन-दर्शन स्वतः उद्घाटित होता जाता है । कुम्भकार और मिट्टी के प्रतीकार्थ काव्यगत परमात्मा एवं आत्मा रूप पात्र ही जीवन के शाश्वत सिद्धान्तों को रूपायित करते हैं । जिस प्रकार मंगल घट की सार्थकता गुरु के पाद - प्रक्षालन में है उसी प्रकार मानव-जीवन की उपादेयता जीवन की गति को परम सत्ता की ओर उन्मुख करने में है । काव्य के नायक हैं किन्तु गुरु के भी आराध्य हैं 'अरहन्त देव' हैं जो मोह मुक्त, सर्वथा निश्चिन्त, जनम-मरण, जरा जीर्णता से परे, अष्टादश दोषों से मुक्त हैं। इसी परम तत्त्व के समान ही आत्मा को पहुँचाने की प्रेरणा कवि ने दी है। मानव शरीर रूपी वही घट सार्थक है जो भवसागर में निर्बाध गति से, विश्वास की मशाल हाथ में लिए आत्मकेन्द्रित होकर विघ्न-बाधा को पार करता चला जाता है । विषय कषायों को त्यागकर जितेन्द्रिय, विजितमना होकर अपने भीतर छुपी ईश्वरीय शक्ति को जागृत करना ही आत्मा का विशुद्ध स्वरूप है। जिस प्रकार एक बार दूध से घृत बन जाने पर वह पुन: दूध नहीं बन सकता उसी प्रकार आत्मतत्त्व को अध्यात्म के निकष पर कसने वाला पुनः संसार में नहीं आता । 'मूकमाटी' काव्य द्वारा मुनिश्री ने जैन दर्शन के इसी स्वरूप को स्पष्ट किया है। इस दृष्टि से प्रस्तुत काव्य चिन्तन प्रधान विचारात्मक प्रबन्धकाव्य है । कृति में धर्म के सत्य स्वरूप को व्याख्यायित करके अपने युग की चेतना को सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में व्याप्त कुरीतियों के प्रति सजग करके शुभ संस्कारों की ओर उन्मुख किया है। चतुर्थ सर्ग में स्वर्ण कलश द्वारा अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु आतंकवाद का आह्वान और उसके द्वारा धर्मरत सेठ के परिवार पर किया गया उपसर्ग (अत्याचार) आज के स्वार्थ- प्रेरित मानव की कलुषित वृत्तियों को प्रतिबिम्बित करता है । काव्य की लक्षणा एवं व्यंजना शब्द - शक्तियों के द्वारा आधुनिक युग की समस्याओं का समाधान भी मन की सद्वृत्तियों, अहिंसा और क्षमाभाव में खोजने का प्रयास किया है। एक तुच्छ से मच्छर के माध्यम से सामाजिक दायित्वबोध को अवगत कराया है तथा समाज की विकृतियों को उद्घाटित किया है । दहेज प्रथा के अभिशाप को निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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