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मूकमाटी-मीमांसा :: 369
युग विशेष के उदात्त कथानक, उदात्त नायक की स्थूल दृष्टि से यह काव्य महाकाव्य नहीं है, क्योंकि इसमें तो उस मनुष्य के जीवन-प्रवाह की गाथा है जो अत्यन्त साधारण है । भाव-विचार, दर्शन एवं अध्यात्म की जिस भव्य नींव पर इस काव्य का महल निर्मित हुआ है, वह उदात्तता की पराकाष्ठा की परिचायक है। यह काव्य विवेकशील प्राणी के लिए मुक्ति का अगम्य पथ प्रशस्त करता है । महाकाव्य की शास्त्रीय नियमावली के अनुशासन का पालन न होने पर भी इस ग्रन्थ में प्रबन्धकाव्य की गरिमा है । व्यक्ति विशेष के चरित्र का उद्घाटन न होने पर भी यह मानव-जीवन का आख्यान बन गया है। चिन्तन के धरातल पर भावों और विचारों की एकसूत्रता, शान्त रस की प्रतिष्ठा में ही अन्य सभी रसों का समाहार, घटना, परिस्थिति तथा उद्देश्य के स्पष्टीकरण के लिए प्रकृति के उपादानों का यथासम्भव उपयोग आदि इस काव्य को उच्च कोटि का प्रबन्धकाव्य सिद्ध करते हैं। यह मनुष्य की मुक्ति यात्रा की मंगलमय गाथा है । इसके चारों सर्ग मानव की आत्म-साधना के ही सोपान हैं। भारतीय दर्शन के निर्गुण और सगुण सभी भक्तों ने ईश्वर प्राप्ति की दिशा में आत्म-चिन्तन, ध्यान एवं योग-साधना द्वारा मुक्ति-पथ की खोज का प्रयास किया है। इसी प्रकार जैन दर्शन में आत्म-दर्शन के लिए जिस कष्ट कर साधना, तप-त्याग आदि की अनिवार्यता होती है उसी के स्वरूप को समझाने के लिए मिट्टी के घड़े का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है । तुच्छ मिट्टी से मंगल घट तक बनने की सम्पूर्ण प्रक्रिया का सूक्ष्म विवेचन एवं विश्लेषण करके यह स्पष्ट किया है कि मनुष्य का भौतिक शरीर, जीवात्मा को युगों-युगों के कठिन संघर्षों और तपस्या के उपरान्त ही प्राप्त होता है । अत: उसे सांसारिक आकर्षणों की मृग-मरीचिका के पीछे न गँवाकर उसे मुक्ति की राह पर लाने में ही मानव-जीवन की सार्थकता है। जिस प्रकार सोना-चाँदी के अमूल्य रत्नजड़ित कुम्भों के जल के समक्ष मिट्टी के तुच्छ घड़े के निर्मल व स्वच्छ जल की शीतलता ही मन को तृप्त कर तृष्णा को शान्त करती है, यहाँ तक कि स्वस्तिक से अंकित मिट्टी का कुम्भ एक त्यागी, तपस्वी की आहार-प्रक्रिया में उपयोगी सिद्ध होता है, उसी प्रकार मनुष्य जब वैभव विलास के बहुमूल्य उपकरणों की तुलना में साधारण जीवन और उच्चविचारों को महत्त्व देता हुआ सांसारिक कष्टों के अवा' में स्वयं को तपाकर आत्मा को परखता है तथा उसे निरन्तर विकास के पथ पर अग्रसर करता है तभी उसकी जीवन-यात्रा मंगलमय बन कर सुखद फल देती है। इसी से मनुष्य-जीवन दूसरों के लिए अनुकरणीय बनता है । मुनिश्री की स्वत: अनुभूत तपस्या और साधना ही इस ग्रन्थ में रूपायित हुई है।
चार खण्डों में विभाजित यह काव्य परिमाण की दष्टि से महाकाव्य की सीमाओं का स्पर्श करता है। प्रकृति के उदात्त चित्रण जटिल दर्शन और विचारों को सरल रूप देने में सहायक बने हैं। सरिता तट की मिट्टी की भाँति हर प्राणी अपनी योनि (पर्याय) से मुक्ति पाना चाहता है । यही काव्य का मूलभूत दार्शनिक प्रश्न है :
“इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की/च्युति कब होगी ?
बता दो, माँ "इसे !/...पद दो, पथ दो,/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ५) काव्य का प्रथम खण्ड- ‘संकर नहीं : वर्ण-लाभ', मूक माटी की उस प्राथमिक दशा के परिशोधन की प्रक्रिया को व्यक्त करता है जहाँ वह पिण्ड रूप में कंकर-कणों से मिली-जुली अवस्था में है। कुम्भकार एक सुन्दर घड़ा बनाने के लिए इस मिट्टी को कूट-छानकर अति सूक्ष्म बनाता है तभी उसका स्वरूप स्वच्छ बन पाता है । द्वितीय खण्ड- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में कवि ने शब्द और बोध की प्रकृति को एक विशेष आयाम दिया है :
“बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं।" (पृ. १०६) बोध का फल जब ढलता-बदलता जिसमें, वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है । तृतीय खण्ड – 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' में माटी की विकास-कथा के माध्यम से पुण्यकर्म के सम्पादन से उपजी श्रेयस्कर उपलब्धि का