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'मूकमाटी' : एक विहंगम दृष्टि
डॉ. (श्रीमती) नीरा जैन
मुनिश्रेष्ठ आचार्य श्री विद्यासागरजी की कृति 'मूकमाटी' जैन साहित्य, दर्शन, धर्म एवं ज्ञान के क्षेत्र में एक अनुपम ग्रन्थ है। मिट्टी के कुम्भ के प्रतीक के माध्यम से मानव जीवन की सूक्ष्म, गम्भीर व्याख्या की है । कुम्भकार पददलित मिट्टी को कूट - छान कर, उससे कंकर - पत्थर पृथक् कर, जीवनदायी जलतत्त्व को मिला कर, उस मिट्टी से मनचाही वस्तुओं को रूपाकार देता है। मिट्टी द्वारा निर्मित वस्तुओं में कुम्भ सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध होता है । अवे की आग में तपने के उपरान्त ही वह जन-कल्याणकारी एवं पूजा का निमित्त कारण रूप मंगल घट बनता है। पुद्गलों से निर्मित होकर भी आत्म तत्त्व के अभाव में शरीर निष्प्राण है । इसी आत्म तत्त्व पहचान कराने के लिए मुनिश्री ने अपनी काव्यप्रतिभा का सौन्दर्य 'मूकमाटी' ग्रन्थ में साकार किया है । वास्तव में यह काव्य मानव जीवन की विशद व्याख्या महाकाव्य के उदात्त व भव्य फलक पर प्रस्तुत करता है । महाकाव्य की रूपविधा में मानव जीवन की रूपक प्रधान अभिव्यंजना करने का सर्वप्रथम प्रयास आधुनिक हिन्दी साहित्य के महान् कवि जयशंकर प्रसादजी की अनुपम कृति 'कामायनी' में सफलता पूर्वक किया जा चुका है। सृष्टि के आदि पुरुष मनु (जो मानव मन का प्रतीक है) श्रद्धा और इड़ा (मन की दो वृत्तियों) के सहयोग से जीवन में शैव दर्शन के आनन्दवाद की प्रतिष्ठा करते हैं । जिस प्रकार प्रसादजी ने मानव-जीवन के शाश्वत मूल्यों (प्रेम, करुणा, दया आदि) की स्थापना करने का प्रयास किया है उसी प्रकार मुनि श्री विद्यासागरजी ने अपने इस ग्रन्थ में जैन धर्म, दर्शन के आधार पर मानव-जीवन को अध्यात्म के धरातल पर परखने का स्तुत्य प्रयास किया है।
संसार में कर्मरत मनुष्य बुद्धि और विवेक से युक्त होकर भी इस मायावी किन्तु क्षणभंगुर संसार के आकर्षणों पीछे उन्मत्त हो अंधी दौड़ लगाता रहता है। इस दिग्भ्रमित लक्ष्यहीन मानव की सद्वृत्तियों को जगा कर आचार्यश्री ने यह समझाने का प्रयास किया है कि मानव जीवन की सार्थकता उसके जीवन का दूसरों के हित में काम आने में है । नि:स्वार्थ भाव से परोपकार करते हुए आत्म तत्त्व को पहचानना और जीवन को सन्मार्ग पर चलाते हुए लक्ष्य तक पहुँचाना मानव-जीवन का परम ध्येय होना चाहिए। मिट्टी जैसी निरीह वस्तु को महाकाव्य के उदात्त विषय के समकक्ष रख उसकी गरिमा को पहचानने की प्रेरणा देकर आचार्य श्री मनुष्य को बताना चाहते हैं कि जिस प्रकार धरती का मूल मिट्टी अनन्त काल से अनन्त कष्ट सहती हुई जड़-चेतन जगत् के सभी प्राणियों व पदार्थों के बोझ को मूक भाव से वहन करती आ रही है, सबका अवलम्ब बनकर भी किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं रखती वरन् माँ समान अच्छे-बुरे, पुण्यात्मा-पापी, बड़े-छोटे, धर्मी- अधर्मी सबका पालन-पोषण करती है, उसी प्रकार धरती के अंश रूप पुद्गलों से निर्मित मानव शरीर रूपी घट को, स्व को (आत्मा) पहचान कर सबके प्रति समता का भाव रखना चाहिए। सांसारिक जीव की स्थिति इसके विपरीत यहाँ के भौतिक सुख-साधनों, विषय-वासनाओं के भोग में आसक्त रहती है। आत्मरूप को भुला कर अज्ञान की निद्रा में सोए इस मनुष्य को ही कवि ने प्रबोधा है और ज्ञान के प्रकाश में स्व को पहचानने की दिशा में उन्मुख किया है।
स्वस्तिक चिह्न की गरिमा को स्पष्ट करते हुए मुनिश्री ने कहा है कि यह स्वयं का प्रतीक है। इसकी चारों पाँखुरियाँ और उनमें अंकित बिन्दु संसार की उन चार गतियों की सूचक हैं जो सुख से शून्य हैं। 'ओम्' के उच्चारण के द्वारा मनुष्य स्वयं की पहचान करता है । आत्म तत्त्व को पहचान कर उसे ईश्वरोन्मुख करना या ईश्वर - सम बनना ही मानव-जीवन का लक्ष्य होता है ।