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'मूकमाटी' महाकाव्य की भाषा
डॉ. शम्भुशरण शुक्ल
भाषा भावों और विचारों की वाहिका है। उच्च भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा का सूक्ष्म ज्ञान और उस पर अधिकार आवश्यक है। समर्थ भाषा के बिना अच्छे से अच्छे विचार भी वांछित प्रभाव नहीं डाल पाते । काव्य के अभिव्यक्ति पक्ष में भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । आचार्य विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' आधुनिक युग का अभिनव महाकाव्य है, जिसमें माटी जैसी पद-दलित वस्तु को काव्य की नायिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आज से वर्षों पहले सन्त कबीर ने माटी के महत्त्व को स्वीकार करते हुए लिखा था :
'मूकमाटी' मात्र कवि कर्म न होकर एक दार्शनिक सन्त के दार्शनिक सिद्धान्तों की भी अभिव्यक्ति है । इसमें कविता को अध्यात्म साथ अभेद की स्थिति में पहुँचाया गया है। ब्राउनिंग ने एक स्थान पर कहा है कि जहाँ काव्य और दर्शन एक साथ मिलें, वहाँ हमें महान् कवि के दर्शन होते हैं। आलोच्य काव्य का कवि महान् है । इस महान् काव्य की भाषा की परख रुचिकर होगी।
भाषा के दो उपकरण हैं : (१) नाद (२) अर्थ । काव्य के उद्भव के समय नाद की प्रधानता थी । आज की कविता विकास के जिन आयामों को पार कर चुकी है, उनमें अर्थ का महत्त्व बढ़ गया है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थ प्रधान भाषा में नाद सौन्दर्य है ही नहीं । आज का कवि नाद को अर्थबोध के सहायक के रूप में लेता है।
यद्यपि आलोच्य काव्य के 'प्रस्तवन' लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के अनुसार : “कवि के लिए अतिशय आकर्षण है शब्द का, जिसका प्रचलित अर्थ में उपयोग करके वह उसकी संगठना को व्याकरण की सान पर चढ़ाकर नयी-नयी धार देते हैं, नयी-नयी परतें उघाड़ते हैं । शब्द की व्युत्पत्ति उसके अन्तरंग अर्थ की झाँकी तो देती ही है, हमें उसके माध्यम
अर्थ के अनूठे और अछूते आयामों का दर्शन होता है (पृ. VII ) । " फिर भी नाद सौन्दर्य की उपेक्षा नहीं है। अर्थ को बिना क्षति पहुँचाए कभी द्विरुक्ति, कभी पुनरुक्ति, तो कभी अनुप्रास के माध्यम से भाव के तीव्र आवेग की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है, यथाः
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"माटी कहे कुंभार से तू क्या रौदे मोहि । इक दिन ऐसा आयगा मैं रौंदूंगी तोहि ॥"
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'क्षण-क्षण ।" (पृ. ३५ )
'छन-छन कर ।" (पृ. ३५ )
“यूँ ! चिरर् चिरर् चिल्लाती ।” (पृ. १३७)
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" गुन-गुन-गुंजन-गान सुनाता ।” (पृ. ३३४)
" चम चम चम चम / चमकनेवाली चमचियाँ ।” (पृ. ३५६ )
"खदबद खदबद / खिचड़ी का पकना वह ।” (पृ. ३६२)
अब शब्द की नई धार देखें, उसके अछूते और अनूठे अर्थ के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :
" मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! / यानी / गद का अर्थ है रोग
हा का अर्थ है हारक/ मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ / बस !" (पृ. ४० )
कितना चमत्कारिक अर्थ है, कवि ने गधा को उसके परम्परागत प्रतीक से मुक्ति दिलाई है। हमारी संस्कृति के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त वाक्य 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का कितना अवमूल्यन हुआ है, आचार्यजी की क़लम से उसका अनूठा अर्थ देखिए: